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________________ 264 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन आत्माभोक्ता है यदिनैतिक-जीवन के लिए आत्मा को कर्ता मानना आवश्यक है, तो उसे भोक्ता भी मानना पड़ेगा, क्योंकि जो कर्मों का कर्ता है, उसे ही उनके फलों का भोग भी करना चाहिए। जैसे आत्मा का कर्तृत्व कर्मपुद्गलों के निमित्त से सम्भव है, वैसे ही आत्मा का भोक्तत्व भी कर्मपुद्गलों के निमित्त से ही सम्भव है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व-दोनों ही शरीरयुक्त बद्धात्मा में पाए जाते हैं, मुक्तात्मा या शुद्धात्मा में नहीं। भोक्तृत्व वेदनीय-कर्म के कारण ही सम्भव है। जैन-दर्शन आत्मा का भोक्तृत्व भी सापेक्ष-दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा में स्वीकार करता है। 1. व्यावहारिक-दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा भोक्ता है। 2. अशुद्धनिश्चयनय या पर्यायदृष्टि से आत्मा मानसिक-अनुभूतियों का वेदक है। 3. परमार्थदृष्टि से आत्मा भोक्ता और वेदक नहीं, मात्र द्रष्टा या साक्षी स्वरूप है। नैतिक-दृष्टि से भोक्तृत्व कर्म और उसके प्रतिफल के संयोग के लिए आवश्यक है। जो कर्ता है, वह अनिवार्य रूप से उनके फलों का भोक्ता भी है, अन्यथा कर्म और उसके फलभोग में अनिवार्य सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकेगा। ऐसी स्थिति में नैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा, अत: यह मानना होगा कि आत्मा भोक्ता है, लेकिन आत्मा काभोक्ता होना बुद्धात्मा या सशरीर आत्मा के लिए ही समुचित है। मुक्तात्मा भोक्ता नहीं है, वह तो मात्र साक्षीस्वरूपया द्रष्टा होता है। गीता और बौद्ध-दर्शनभीसशरीर जीवात्मा में भोक्तृत्व को स्वीकार करते हैं। 10. आत्मास्वदेह-परिणाम है यद्यपि जैन-विचारणा में आत्माओं को रूप, रस, वर्ण, गन्ध, स्पर्श आदि से विवर्जित कहा गया है, तथापि आत्मा को शरीराकार स्वीकार किया गया है। आत्मा के आकार के सम्बन्ध में प्रमुख रूपसे दो दृष्टियाँ हैं : एक के अनुसार आत्मा विभु (सर्वव्यापी) है, दूसरी के अनुसार अणु है। सांख्य, न्याय और अद्वैत-वेदान्त आत्मा को विभु मानते हैं और रामानुज अणु मानते हैं। जैन-दर्शन की इस सम्बन्ध में मध्यस्थदृष्टि है। उसके अनुसार, आत्मा अणुभी है और विभुभी। वह सूक्ष्म इतना है कि एक आकाश-प्रदेश के अनन्तवें भाग के बराबर है और विभु है, तो इतना है कि समग्र लोक को व्याप्त कर सकता है। जैन-दर्शन आत्मा में संकोच-विस्तार को स्वीकार करता है और इस आधार पर आत्मा को स्वदेहपरिणाम मानता है। जैसे दीपक का प्रकाश छोटे कमरे में रहने पर छोटे कमरे को और बड़े कमरे में रहने पर बड़े कमरे को प्रकाशित करता है, वैसे ही आत्मा भी जिस देह में रहता है, उसे चैतन्याभिभूत कर देता है। आत्माके विभुत्वकी नैतिक-समीक्षा 1. यदि आत्मा विभु (सर्वव्यापक) है, तो वह दूसरे शरीरों में भी होगा, फिर उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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