________________
आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
261
आत्मकर्तृत्ववाद भी नैतिक-समीक्षा की कसौटी पर दोषपूर्ण उतरता है।
एकान्त-कर्तृत्ववाद के दोष
1. यदि आत्मा को एकान्त रूप से कर्मों का कर्ता माना जाए, तो कर्तृत्व उसका स्वलक्षण होना चाहिए और ऐसी स्थिति में निर्वाणावस्था में भी उसमें कर्तृत्व रहेगा। यदि कर्त्तापन आत्मा का स्वलक्षण है, तो वह कभी छूट नहीं सकता और छूट सकता है, वह स्वलक्षण नहीं हो सकता।
2. जिस प्रकार स्वर्ण स्वर्णाभूषण का कारण हो सकता है, रजताभूषण का नहीं; उसी प्रकार यदि आत्मा को कर्ता माना जाए, तो वह मात्र चैत्तसिक-अवस्थाओं का ही कर्ता सिद्ध हो सकता है, जड़ (भौतिक) कर्मों का कर्ता नहीं। जैन नैतिकविचारणा में आत्मा को कर्मों का कर्ता माना जाता है, लेकिन जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं ही प्रश्न किया है कि कर्म तो जड़ हैं और आत्मा चेतन, दोनों भिन्न हैं; फिर आत्मा को जड़ कर्मों का कर्ता कैसे माना जाए ? आत्मा जड़ में नहीं और जड़ आत्मा में नहीं, फिर वह चेतन आत्मा जड़ कर्मों का कर्ता कैसे हो सकता है ? तप्त लौह-पिण्ड में अग्नि रहते हुए भी वह उसका कर्ता या कारण नहीं हो सकती, वस्तुत: तो वहाँ भी लौह लौह में है और अग्निअग्नि में।
3. आत्मा को स्वलक्षण की दृष्टि से कर्ता मानने पर मुक्ति की सम्भावना ही समाप्त होजाएगी, क्योंकि यदि कर्तृत्व स्वलक्षण है, तो मोक्षदशा में भी रहेगा और इसके कारण उसे बन्धन में आने की सम्भावना बनी रहेगी। आत्म-कर्तृत्वके सम्बन्ध में कुन्दकुन्द के विचार
इन आक्षेपों को दृष्टि में रखते हुए महावीर के परवर्ती कुछ जैन-विचारकों ने भी जब आत्मकर्तृत्वकी इस समस्या की गहन समीक्षा की, तो उन्होंने भी यह कह दिया कि आत्मा कर्ता नहीं। आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार में एक गहन समीक्षा के पश्चात् स्पष्ट रूप से कह दिया कि जीव (आत्मा) अकर्ता है, गुण ही कर्मों के कर्ता हैं।" जो जानता है कि आत्मा (कर्मों का) कर्ता नहीं है, वही (सच्चा) ज्ञानी है। आत्मा को धर्म (शुभ) अथवा पाप (अशुभ) आदि के वैचारिक-परिणामों का कर्ता कहा जाता है, लेकिन वह किसी भी प्रकार कर्ता नहीं होता है, जो इस प्रकार जानता है, वही ज्ञानी है। इस प्रकार, आचार्य कुन्दकुन्द आत्म-कर्तृत्व की मान्यता का स्पष्ट निषेध करते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि यह विचारणा आचार्य की स्वयं की है और पूर्ववर्ती साहित्य में इसका कोई उल्लेख नहीं है। सर्वाधिक प्राचीन जैनागम आचारांगसूत्र में भी ऐसा संकेत मिलता है कि जो गुण (इन्द्रियविषय) है, वही बन्धन है। इस प्रकार, यहाँ भी बन्धन अथवा कर्तृत्व का उत्तरदायित्वआत्मा पर नहीं, वरन् गुणों (इन्द्रियविषयों) पर डाला गया है। पूर्ववर्ती बन्धन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org