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________________ जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (प्रतिक्षण परिवर्तनशील) मानता है, वहाँ गीता उसे कूटस्थ - नित्य कहती है। जैन दर्शन अपनी समन्वयवादी-पद्धति के अनुरूप उसे परिणामी - नित्य कहता है । परिणामी - आत्मवाद का प्रश्न आत्मा के कर्तृत्व से निकट रूप से सम्बन्धित है, अतः अब उस पर विचार करेंगे। 8. 260 आत्मा कर्ता है - नैतिक दृष्टि से आत्मा ही नैतिक कर्मों की कर्त्ता है, लेकिन हमें यह विचार करना है कि यह आत्मा किस अर्थ में कर्त्ता है। पाश्चात्य नैतिक-विचारणा में नैतिक अथवा नैतिक-कर्मों का कर्ता मनुष्य को मान लिया गया है, अतः वहाँ कर्तृत्व की समस्या विवाद का विषय नहीं रही है, लेकिन भारतीय परम्परा में यह प्रश्न महत्वपूर्ण रहा है। भारतीयविचारक इस सम्बन्ध में तो एकमत हैं कि मनुष्य नैतिक-अनैतिक कर्मों का कर्ता है, लेकिन भारतीय- विचारक और गहराई में उतरे। उन्होंने बताया कि मनुष्य तो भौतिक शरीर और चेतन - आत्मा के संयोग का परिणाम है, उसमें चित् अंश भी है और अचित् अंश भी है, अतः प्रश्न यह है कि चित् एवं अचित् अंश में कौन नैतिक-कर्मों का कर्त्ता एवं उत्तरदायी है ? इस प्रश्न का उत्तर तीन प्रकार से दिया गया। कुछ विचारकों ने अचित् अंश, अचेतन जड़प्रकृति को कर्त्ता माना। सांख्य- विचारकों ने बताया कि जड़ प्रकृति ही शुभाशुभ कर्मों की कर्त्री है। वही नैतिक- उत्तरदायित्व के आधार पर बन्धन में आती है और मुक्त होती है । 42 शंकर ने इस कर्तृत्व को मायाधीन पाया और उसे एक भ्रान्ति माना। इस प्रकार, सांख्यदर्शन एवं शंकर ने आत्मा को अकर्त्ता कहा, दूसरी ओर न्यायवैशेषिक आदि विचारकों ने आत्मा को कर्त्ता माना, लेकिन जैन- विचारकों ने इन दोनों एकान्तिक मान्यताओं के मध्य का रास्ता चुना। जैन आचारग्रन्थों में यह वचन बहुतायत से उपलब्ध होते हैं कि आत्मा कर्ता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि आत्मा ही सुखों और दुःखों का कर्ता और भोक्ता है । 12 यह भी कहा गया है कि सिर काटनेवाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना दुराचरण में प्रवृत्त अपनी आत्मा करती है। 43 यही नहीं, सूत्रकृतांग में आत्मा को अकर्त्ता मानने वाले लोगों की आलोचना करते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया है- कुछ दूसरे (लोग) तो धृष्टतापूर्वक कहते हैं कि करना - कराना आदि क्रिया आत्मा नहीं करता, वह तो अकर्त्ता है। इन वादियों को सत्य ज्ञान का पता नहीं और न उन्हें धर्म का ही भान है। 44 उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर को नाव और जीव को नाविक कहकर जीव पर नैतिक-कर्मों का उत्तरदायित्व डाला गया है। 45 लेकिन उक्त सन्दर्भों के आधार पर यह समझ लेना नितान्त भ्रमपूर्ण होगा कि जैनआचारदर्शन आत्मकर्तृत्ववाद को मानता है, क्योंकि एकान्तिक रूप में माना गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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