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आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
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आधार पर सांख्यदर्शन और गीता की विचारणा का विकास हुआ है।” डॉ. राधाकृष्णन् आदि पूर्णकाश्यप को सांख्य-परम्परा का ही आचार्य मानते हैं। यहाँ तो हमारा तात्पर्य इतना ही है कि समालोच्य नैतिक-विचारणाओं के विकास-काल में यह धारणा भी बलवती थी कि आत्माअपरिणामी है। सूत्रकृतांग में भी आत्मा के अक्रियावाद को मानने वालों का उल्लेख है। कहा गया है कि कुछ दूसरे धृष्टतापूर्वक कहते हैं कि करना-कराना आदि क्रिया आत्मा नहीं करता, वह तो अकर्ता है।'39 अपरिणामीआत्मवाद कीनैतिक-समीक्षा __1. आत्मा को अपरिणामी मानने की स्थिति में आत्मा के भावों में परिवर्तन मिथ्या होगा। यदि आत्मा के भावों में विकार और परिर्वतन की सम्भावना नहीं है, तो आत्मा को या तो नित्य-मुक्त मानना होगा या नित्य-बद्ध और दोनों अवस्थाओं में नैतिक-जीवन के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा। नैतिक-साधना बन्धन से मुक्ति का प्रयास है और यदि बन्धन नित्य है, तो फिर मुक्ति के लिए प्रयास का कोई अर्थ नहीं। दूसरे, यदिआत्मा नित्यमुक्त है, तो भी मुक्ति का प्रयास निरर्थक ही है।
2. आत्मा को अधिकारी मानने पर बन्धन का कारण समझाया नहीं जा सकता, क्योंकि आत्मा का बन्धन दूसरे के कारण नहीं हो सकता और आत्मा स्वयं अविकारी होने से अपने बन्धन का कारण नहीं हो सकता, अत: स्पष्ट है कि अपरिणामी आत्मवाद बन्धन की समुचित व्याख्या करने में समर्थ नहीं है।
3. नैतिक-विकास और नैतिक-पतन-दोनों आत्म-परिणामवाद की अवस्था में ही सम्भव हैं। शुभत्व और अशुभत्व-दोनों परिणामी आत्मा में ही घट सकते हैं।
4. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी आत्मा को अपरिणामी मानने पर सुख-दुःखादि भावों को नहीं घटाया जा सकता।
आत्म-अपरिणामवाद की इन कठिनाइयों के कारण ही जैन-विचारक आत्मा को परिणामी मानते हैं। जैन-विचारकों ने यहमाना है कि सत् उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक है, अत: आत्मा भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। इसी आधार पर आत्मा में पर्याय-परिवर्तन सम्भव है।आत्मा में तत्त्व-दृष्टि से ध्रौव्यता होते हुए भी पर्यायदृष्टि से उसमें परिवर्तन होते रहते हैं।
बौद्ध-दर्शन भी परिवर्तन (परिणामीपन) को स्वीकार करता है। उसके अनुसार तो चैत्तसिक-वृत्तियों या मानसिक-अवस्थाओं से भिन्न कोई आत्मा नामक तत्त्व ही नहीं है। बुद्ध और महावीर-दोनों ने ही तात्कालिक उन मान्यताओं का खण्डन किया, जो आत्मा को अपरिणामी मानती थीं। रही गीता के दृष्टिकोण की बात, तो यह आत्म-परिणामवाद को स्वीकार नहीं करती। वह आत्मा को कूटस्थ-नित्य मानती है। इस सम्बन्ध में जैन-दृष्टिकोण मध्यस्थ है। जहाँ बौद्ध-दर्शन उसे मात्र परिणामी
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