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आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
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'उपयोग' शब्द का प्रयोग होता है। तत्त्वार्थसूत्र में उपयोग (चेतना) दो प्रकारका माना गया है- (1) ज्ञानात्मक (ज्ञानोपयोग) और (2) अनुभूत्यात्मक (दर्शनोपयोग)। डॉ. कलघाटगी उपयोगशब्द में चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक-तीनों ही पक्षों को समाहित करते हैं। वस्तुत:, नैतिक-जीवन की दृष्टि से आत्मा के ये तीनों पक्ष आवश्यक हैं। प्रो. सिन्हा ने भी आत्मा में इन तीनों की उपस्थिति को आवश्यक माना है। आगे हम इन तीनों पर थोड़े विस्तार से चर्चा करेंगे। (अ) ज्ञानोपयोग
जैन-विचारणा में ज्ञान को आत्मा का स्वभाव यास्वलक्षण माना गया है। वस्तुतः, यदि आत्मा में ज्ञान नहीं हो, तो नैतिक-जीवन में निम्न तीन बातें असम्भव होंगी- (1) नैतिक-आदर्श का बोध, (2)शुभाशुभ का विवेक और (3) नैतिक-उत्तरदायित्व।
__ नैतिक-साध्य का बोध नैतिक-जीवन की प्रथम शर्त है, क्योंकि जब तक परमश्रेय का बोध नहीं होगा, तब तक न तो शुभाशुभ और न औचित्य-अनौचित्य का विवेक होगा
और नसम्यक् दिशा में नैतिक-प्रगति ही सम्भव होगी। जहाँ तक नैतिक अथवा अनैतिक कहे जाने वाले आचरण का प्रश्न है, वह आचरण मात्र कर्ता की अपेक्षा नहीं करता, वरन् शुभाशुभ की विवेक-क्षमता-युक्त कर्ता की अपेक्षा करता है, क्योंकि जड़ पदार्थों की क्रियाओं के नैतिक अथवा अनैतिक होने के सम्बन्ध में कोई विचार नहीं करता। इतना ही नहीं, पाश्चात्य-विचारकों की दृष्टि में तो शुभाशुभ विवेककी शक्ति के अभाव में भी किसी कर्ता के कर्म नैतिक अथवा अनैतिक नहीं माने जाते, जैसे बालक अथवा मनोविकृत का आचरण। यद्यपि जैन-विचारणा इस सम्बन्ध में थोड़ी भिन्न दृष्टि रखती है। वह यह तो स्वीकार करती है कि चेतना के अभाव में जड़ पदार्थों की क्रियाएँ नैतिक या अनैतिक नहीं होती। वह पाश्चात्य-विचारकों के साथ इस बात में भी सहमत है कि नैतिक विवेक-शक्ति के वास्तविक अभाव में किसी के भी कमों को नैतिक अथवा अनैतिक नहीं माना जा सकता, लेकिन जैन-विचारक यह मानते हैं कि सभी चैतन्य प्राणियों में मूलतः शुभाशुभका विवेक करने वाली शक्ति निहित है। आत्मा और विवेक अलग-अलग नहीं रहते-जहाँ चेतना या आत्मा है, वहाँ विवेक है ही। ऐसा कोई भी प्राणी नहीं, जिसमें मूलत: नैतिकविवेक का अभाव हो। जैन-विचारक कहते हैं कि विवेक-क्षमता (Capacity) तो सभी में है, लेकिन विवेक-योग्यता (Ability) सबमें नहीं है। नैतिक-विवेकका अस्तित्वसभी में है, लेकिन उसका प्रकटन सभी में नहीं है। किसी प्राणी के कर्मों का नैतिकता या अनैतिकता की सीमा में आना विवेक-शक्ति के प्रकटन पर नहीं, वरन् उसके अस्तित्व पर निर्भर करता है। जैन-दर्शन के अनुसार, आत्मा में निहित विवेक-शक्ति को प्रकट न करना स्वयं में ही सबसे बड़ी अनैतिकता है। इस प्रकार, जहाँ पाश्चात्य-विचारकों की दृष्टि में
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