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________________ 254 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन सके तथा नैतिक-विवेक एवं सकंल्प की क्षमता के आधार पर नैतिक-उत्तरदायित्व की समुचित व्याख्या की जा सके। डॉ. यदुनाथ सिन्हा के अनुसार आत्मा को एक वास्तविक, स्थाई, आत्मचेतन एवं स्वतन्त्र कर्ता होना चाहिए। स्व के भीतर आत्म-संचालन तथा आत्मनिर्णय की शक्ति (संकल्प-स्वातन्त्र्य) होना चाहिए। तर्क अथवा बुद्धि को आत्मा का एक अनिवार्य तत्त्व होना चाहिए। श्री केल्डरउड के अनुसार आत्मा केवल मनीषा के रूप में ही नहीं, शक्ति के रूप में भी प्रकट होती है। मैं एक आत्मचेतन, बुद्धिमान् तथा आत्मनिर्णायक शक्ति है। इस प्रकार, व्यक्तित्व में आत्मचेतन सत्ता, आत्मनियन्त्रित बुद्धि तथा आत्मनिर्णायक क्रिया का समावेश होता है। जैन-दार्शनिकों ने आत्मा में अनन्तचतुष्टय, अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सौख्य (आनन्द) और वीर्य (शक्ति) की अनन्तता को स्वीकार किया है। दर्शन आत्मचेतन सत्ता का, ज्ञान आत्मनियन्त्रित बुद्धि का और वीर्य संकल्पशक्ति या साध्य का अनुसरण करने की क्षमता एवं क्रिया का समानार्थक है। प्रमाणनयतत्त्वालोक में आत्मा के निम्न लक्षण वर्णित हैं, आत्मा चैतन्यस्वरूप, परिणामी, कर्ता, साक्षात् भोक्ता, स्वदेह-परिमाण, प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न और पौद्गलिक कर्मों से युक्त है। 29 जीव का लक्षण उपयोग कहा गया है। उपयोग शब्द चेतना को अभिव्यक्त करता है। यह स्मरणीय है कि जैन-दर्शन चेतना को आत्मा का स्वलक्षणमानता है, न्यायवैशेषिकदर्शन के समानचेतना को आत्मा का आगन्तुक गुण नहीं मानता। इससम्बन्ध में जैनदर्शन का विचारशंकर के अनुरूप है कि निर्वाण यामुक्ति की अवस्था में भी आत्मा चैतन्यही रहता है। मुक्ति की अवस्था में उसकी चेतना-शक्ति अबाधित एवं पूर्ण होती है, और संसारावस्था में उसकी चेतना-शक्ति आवरित होती है, यद्यपिजीवकी चेतना-शक्ति का पूर्ण आवरण कभी नहीं होता है। इससे विपरीत, न्याय-वैशेषिकदर्शन मुक्तावस्था में आत्मा में चेतनाका अभावमानते हैं। यदिमुक्तावस्था में चेतनाका सद्भाव नहीं माना जाता है, तो मुक्ति का आदर्श अधिक आकर्षक नहीं रहता, इसलिए आलोचकों ने यहाँ तक कह दिया कि न्याय-वैशेषिकदर्शन की मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षातो वृन्दावन में श्रृगाल-योनि में विचरण करना कहीं अधिक अच्छा है। हेगौतम! तुम्हारी यह पाषाणवत् मुक्ति तुम्हें ही मुबारक हो, तुम सचमुच ही गौतम (बैल) हो।। लेकिन, जहाँ तक नैतिक-जीवन-क्षेत्र की बात है, वहाँ तक सभी आत्मा में चेतना के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। सांख्य, योग और वेदान्त-दर्शन इसे स्वलक्षण की अपेक्षा से स्वीकार करते हैं और न्याय-वैशेषिक इसे आगन्तुक लक्षण की अपेक्षा से स्वीकार करते हैं। इतना ही नहीं, देहात्मवादी-चार्वाक और अनात्मवादी-बौद्ध भी व्यक्तित्व में चेतना को स्वीकार करते हैं। वस्तुतः, चेतना नैतिक-जीवन कीअनिवार्य स्थिति है, नैतिक उत्तरदायित्व और नैतिक-विवेक चेतना के अभाव में सम्भव नहीं है। जैन-दर्शन में चेतना के स्थान पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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