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आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
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वस्तुत:, आत्मा और शरीर में एकत्व माने बिना स्तुति, वंदन, सेवा आदिअनेक नैतिकआचरण की क्रियाएँ असम्भव नहीं। दूसरी ओर, आत्मा और देह में भिन्नता माने बिना आसक्तिनाश और भेदविज्ञान की सम्भावना नहीं हो सकती। नैतिक-विवेचन की दृष्टि से एकत्व और अनेकत्व-दोनों अपेक्षित हैं। यही जैन-नैतिकता की मान्यता है। महावीर ने ऐकान्तिक-वादों को छोड़कर अनेकान्त-दृष्टि को स्वीकार किया और दोनों वादों का समन्वय किया।
(ब) बौद्ध-दृष्टिकोण
भगवान् बुद्ध भी नैतिक-दृष्टि से दोनों को ही अनुचित मानते हैं। उनका कथन है कि हे भिक्षु ! जीव वही है, जो शरीर है, ऐसी दृष्टि रखने पर ब्रह्मचर्यवास (नैतिकाचरण) सम्भव नहीं होता। हे भिक्षु ! जीव अन्य है और शरीर अन्य है, ऐसी दृष्टि रखने पर भी ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं होता है। हे भिक्षु ! इसीलिए तथागत दोनों अन्तों को छोड़कर मध्यममार्ग का धर्मोपदेश देते हैं।"
इस प्रकार, भगवान् बुद्ध ने दोनों ही पक्षों को सदोष जानकर उन्हें छोड़ने का निर्णय लिया। उनके अनुसार, भेदपक्ष और अभेदपक्ष-दोनों गलत हैं और जो इनमें से किसी एक को स्वीकार करता है, मिथ्यादृष्टि को उत्पन्न करता है। महावीर ने दोनों पक्षों को ऐकान्तिकरूप में सदोष तो माना, लेकिन उनको छोड़ने की अपेक्षा उन्हें सापेक्ष रूप में स्वीकार किया।
(स) गीता का दृष्टिकोण
गीता के अनुसार शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होता और दूसरा शरीर ग्रहण करता है। जैसे व्यक्ति वस्त्रों को जीर्ण होने पर बदल देता है, वैसे यह आत्मा जीर्ण शरीरों को बदलता रहता है।24 गीता में शरीर को क्षेत्र और आत्माको क्षेत्रज्ञ कहा गया है.5
और यह माना गया है कि हमारे वर्तमान व्यक्तित्व क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ या आत्मा और शरीर के संयोग से उत्पन्न हुए हैं।
इस प्रकार, आत्मा को एक आध्यात्मिक मौलिक-तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है, लेकिन जहाँ तक नैतिक-कर्ता के रूप में हमारे व्यक्तित्वों का प्रश्न है, उसे एक मनोभौतिक या शरीरयुक्त आत्मा के रूप में ही स्वीकार किया गया है। जैन-दर्शन के अनुसार व्यक्तित्व आत्मा और पुद्गल का विशिष्ट संयोग है। बौद्ध-दर्शन के अनुसार भी मनुष्य नाम (मानसिक) और रूप (भौतिक) का संयोग है। गीता उसे क्षेत्र (जड़ प्रकृति)
और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) का संयोग मानती है। 6. आत्माके लक्षण
नैतिकता के लिए आत्मा या व्यक्तित्वकाहोनाही पर्याप्त नहीं है, वरन् उसमें कुछ विशिष्ट क्षमताएँ भी होनी चाहिए, जिनके आधार नैतिक-साध्य का अनुसरण किया जा
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