SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 252 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन स्वरूप उपलब्ध नहीं हो जाता, नैतिक-साध्य मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। जब तक आत्मा शरीर में आबद्ध है, वह अपनी सीमितता या अपूर्णता से ऊपर नहीं उठ सकता, अत: नैतिक-आदर्श की दृष्टि से आत्मा का अपौद्गलिक-स्वरूप भी स्वीकार करना होगा। जब तक हम सीमितताओं और अपूर्णताओं से ऊपर नहीं उठ जाते हैं, तब तक हम सशरीर व्यक्तित्व बने रहेंगे और हमारे सामने नैतिकता का कार्य-क्षेत्र भी बना रहेगा। 5. आत्मा औरशरीरकासम्बन्ध हमारा वर्तमान व्यक्तित्व पूर्णतया अभौतिक नहीं है। वह शरीर और आत्मा का विशिष्ट संयोग है। नैतिक-दृष्टि से यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि आत्मा और शरीर का क्या सम्बन्ध है ? क्या आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है? अथवा, आत्मा वही है, जो शरीर है? यदि यह माना जाए कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है, तो शरीर-धर्म (भूख, प्यास, मैथुन, निद्रा-प्रमाद आदि) का सम्बन्ध नैतिकता से नहीं रहेगा. न हिंसा-व्यभिचार आदि अनैतिक कर्म होंगे, साथ ही समस्त शारीरिक-कर्मों की शुभाशुभता के लिए आत्मा को उत्तरदायी नहीं माना जा सकेगा। कार्यकृत कर्मों का फल उसे नहीं मिलना चाहिए। इस जन्म के शरीर के कर्मों का फल दूसरे जन्म का शरीर भोगे, यह भी न्यायोचित नहीं होगा, क्योंकि दोनों शरीर भिन्न हैं। ऐसी स्थिति में अकृतागम का दोष होगा, साथ ही आत्मा और शरीर को एकांत रूप से भिन्न मानने पर शरीर से दूसरे की सेवा, स्तुति, कायिक-तप आदि नैतिक एवं शुभ क्रियाओं का भी कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। ये क्रियाएँ आत्मविकास में सहायक नहीं मानी जा सकेंगी। दूसरे, यदि आत्मा वही है, जो शरीर है- यह माना जाए, तो शरीर के विनाश के साथ आत्मा का विनाश मानना होगा और ऐसी स्थिति में अनेक शुभाशुभ कर्मों का प्रतिफल अभोग्य ही रह जाएगा, नैतिक-दृष्टि से कृतप्रणाश का दोष उपस्थित हो जाएगा, अत: आत्मा और शरीर को एक ही मानने में वे भी सभी दोष उपस्थित हो जाएंगे, जो अनित्य-आत्मवाद के हैं। इस प्रकार, दोनों ही एकान्तिक-दृष्टिकोणनैतिकदर्शन की उत्पत्ति में सहायक नहीं होते। (अ) जैन-दृष्टिकोण महावीर के सम्मुख जब यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि 'भगवन् ! जीव वही है, जोशरीर है, या जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है?' तो महावीर ने उत्तर दिया हेगौतम! जीव शरीर भी है और जीव शरीर से भिन्न भी है। 21 इस प्रकार, महावीर ने आत्मा और देह के मध्य भिन्नत्व और एकत्व-दोनों को स्वीकार करके नैतिक मर्यादा की स्थापना को सम्भव बनाया। आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा और शरीर के एकत्व और भिन्नत्व को लेकर यही विचार प्रकट किए हैं। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि व्यावहारिक-दृष्टि से आत्मा और देह एक ही हैं, लेकिन निश्चयदृष्टि से आत्मा और देह कदापि एक नहीं हो सकते।2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy