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आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
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बिना जीव के उनका अस्तित्व नहीं। (यदि जीव पौद्गलिक नहीं, तो रागादिक पौद्गलिक कैसे सिद्ध हो सकेंगे? इसके सिवाय अपौद्गलिक जीवात्मा में कृष्ण-नीलादि लेश्याएँ कैसे बन सकती हैं ?) (10)
जैन-दर्शन जड़ और चेतन के द्वैत को और उनकी स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करता है। वह सभी प्रकार के अद्वैतवाद का विरोध करता है, चाहे वह शंकर का आध्यात्मिकअद्वैतवादहो, अथवा चार्वाक एवं अन्य वैज्ञानिकों का भौतिक-अद्वैतवाद हो, लेकिन इस सैद्धान्तिक-मान्यता से उपर्युक्त शंकाओं का समाधान नहीं होता। इसके लिए हमें जीव के स्वरूप को उस सन्दर्भ में देखना होगा, जिसमें उपर्युक्त शंकाएँ प्रस्तुत की गई हैं। प्रथमतः, संकोच-विस्तार तथा उसके आधार पर होने वाले सौक्षम्य एवं स्थौल्य तथा बन्धन और रागादिभाव का होना सभी बद्ध जीवात्माओं या हमारे वर्तमान सीमित व्यक्तित्व के कारण है। जहाँ तक सीमित व्यक्तित्व या बद्ध जीवात्मा का प्रश्न है, वह एकान्त-रूप से न तो भौतिक है और न अभौतिक। जैन-चिन्तक मुनि नथमलजी इन्हीं प्रश्नों का समाधान करते हुए लिखते हैं कि मेरी मान्यता यह है कि हमारा वर्तमान व्यक्तित्वन सर्वथा पौद्गलिक है,
और न सर्वथा अपौद्गलिक। यदि उसे सर्वथा पौद्गलिक मानें, तो उसमें चैतन्य नहीं हो सकता और उसे सर्वथाअपौद्गलिक मानें, तो उसमें संकोच-विस्तार, प्रकाशमय अनुभव, ऊर्ध्वगौरवधर्मिता, रागादि नहीं हो सकते। मैं जहाँ तक समझ सका हूँ, कोई भी शरीरधारी जीव अपौद्गलिक नहीं है। जैन-आचार्यों ने उसमें संकोच-विस्तार, बन्धन आदिमाने हैं, अपौद्गलिकता उसकी अन्तिम परिणति है, जो शरीर-मुक्ति से पहले कभी प्राप्त नहीं होती। मुनिजी के इस कथन को अधिक स्पष्ट रूप में यों कहा जा सकता है कि जीव का अपौद्गलिक स्वरूप उपलब्धि नहीं, आदर्श है। जैन-साधना का लक्ष्य इसीअपौद्गलिकस्वरूप की उपलब्धि है। जीव की पौद्गलिकता तथ्य है, आदर्श नहीं और जीव की अपौद्गलिकता आदर्श है, जागतिक-तथ्य नहीं।
जैन-दार्शनिकों के अनुसार आत्मा का वास्तविक स्वरूप अभौतिक ही है, यद्यपि वह तथ्य नहीं क्षमता है, जिसे उपलब्ध किया जा सकता है। जिस प्रकार बीज में वृक्ष वास्तविक रूप में कहीं उपलब्ध नहीं होता, लेकिन सत्ता तो रहती ही है, जो विकास की प्रक्रिया में जाकर वास्तविकता बन जाती है। इसी प्रकार, नैतिक-विकास की प्रक्रिया से ही जीव उस अभौतिक-स्वरूप को, जो मात्र प्रसुप्त सत्ता में था, वास्तविकता बना देता है। जैन-विचार यह भी स्वीकार करता है कि भौतिक-जीवन के लिए जीवात्मा का सर्वथा अपौद्गलिक-स्वरूप और सर्वथा पौद्गलिक-स्वरूप, दोनों ही व्यर्थ हैं। नैतिक-जीवन क्रियाशीलता है, जो आत्मा के सर्वथा अपौद्गलिक-स्वरूप में सम्भव नहीं है। नैतिकजीवन के लिए एक सशरीरीव्यक्तित्व चाहिए, लेकिन जब तक आत्मा को अपौद्गलिक
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