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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
ने अपनी पुस्तक 'नेचर आफ सेल्फ' में काफी प्रकाश डाला है। शंकर पूछते हैं कि भौतिकवादियों के अनुसार भूतों से उत्पन्न होने वाली उस चेतना का स्वरूप क्या है ? उनके अनुसार, या तो चेतना उन तत्त्वों की प्रत्यक्ष कर्त्ता होगी, या उनका ही एक गुण होगी। प्रथम स्थिति में, यदि चेतना गुणों की प्रत्यक्ष कर्त्ता होगी, तो वह उनसे प्रत्युत्पन्न नहीं होगी। दूसरे, यह कहना भी हास्यास्पद होगा कि भौतिक गुण अपने ही गुणों को ज्ञान की विषयवस्तु बनाते हैं। यह मानना कि चेतना, जो भौतिक पदार्थों का ही एक गुण है, उनसे ही प्रत्युत्पन्न है, उन भौतिक पदार्थों को ही अपने ज्ञान का विषय बनाती है- उतना ही हास्यास्पद है, जितना यह मानना कि आग अपने को ही जलाती है, अथवा नट अपने ही कंधों पर चढ़ सकता है। इस प्रकार, शंकर का निष्कर्ष भी यही है कि चेतना (आत्मा) भौतिक-तत्त्वों से व्यतिरिक्त और ज्ञानस्वरूप है। 18
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आक्षेप एवं निराकरण
सामान्य रूप से जैन-विचारणा में आत्मा या जीव को अपौद्गलिक, विशुद्ध चैतन्य एवं जड़ से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य माना जाता है, लेकिन दार्शनिकों का आक्षेप है कि जैन-विचार में जीवन का स्वरूप बहुत कुछ पौद्गलिक बन गया है। यह आक्षेप अजैन- दार्शनिकों का ही नहीं, अनेक जैन- चिन्तकों का भी है और उसके लिए आगमिक-आधारों पर कुछ तर्क भी प्रस्तुत किए गए हैं। पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने इस विषय में एक प्रश्नावली भी प्रस्तुत की थी । " यहाँ उस प्रश्नावली के कुछ उन प्रमुख मुद्दों पर ही चर्चा करना अपेक्षित है, जो जैन दार्शनिक मान्यताओं में ही पारस्परिक- विरोध को प्रकट करते हैं।
1. जीव यदि पौद्गलिक नहीं है, तो उसमें सौक्षम्य - स्थौल्य अथवा संकोच - विस्तार क्रिया और प्रदेश - परिस्पन्द कैसे बन सकता है ? जैन- विचारणा के अनुसार सौक्षम्य - स्थौल्य को पुद्गल का पर्याय माना गया है। (2)
2. जीव के अपौद्गलिक होने पर आत्मा में पदार्थों का प्रतिबिम्बित होना भी कैसे सकता है ? क्योंकि प्रतिबिम्ब का ग्राहक पुद्गल ही होता है। जैन-विचार में ज्ञान की उत्पत्ति पदार्थों के आत्मा में प्रतिबिम्बित होने से ही माना गई है। (3)
3. अपौद्गलिक और अमूर्त्तिक- जीवात्मा का पौद्गलिक एवं मूर्त्तिक- कर्मों के साथ बद्ध होकर विकारी होना कैसे बन सकता है ? इस प्रकार के बन्ध का कोई दृष्टान्त भी उपलब्ध नहीं है। स्वर्ण और पाषाण के अनादिबन्ध का जो दृष्टान्त दिया जाता है, वह विषम दृष्टान्त है और एक प्रकार से स्वर्णस्थानी जीव का पौद्गलिक होना ही सूचित करता है। (8)
4. रागादिक को पौद्गलिक कहा गया है और रागादिक जीव
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