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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
स्वतन्त्र रूप से नैतिकता की मान्यताकहा। रशडाल विश्व के बौद्धिक-प्रयोजन, काल तथा अमंगल की वास्तविकता को भी नैतिकता की मान्यता के अन्तर्गत ले जाते हैं। बोसांके भी अमंगल की वास्तविक सत्ता को स्वीकार करते हैं। संक्षेप में, पाश्चात्य-आचारदर्शन में स्वीकृत मुख्य नैतिक-मान्यताएँ हैं- (1) मनीषा (विवेकबुद्धि) और कर्मशक्ति से युक्त आत्मा (व्यक्तित्व), (2) आत्मा की अमरता, (3) आत्माकी स्वतन्त्रता, (4) ईश्वर का अस्तित्व (नैतिक-मूल्यों का स्रोत एवं नैतिक-जीवन का आदर्श), (5) नैतिक-प्रगति (नैतिक- पूर्णता की सम्भावना) तथा (6) अमंगल (अशुभ) की वास्तविकता। भारतीय-आचारदर्शन की नैतिक-मान्यताएँ
भारतीय-आचारदर्शन में कर्मसिद्धान्त को नैतिकता की मूलभूत मान्यता कहा जा सकता है। कर्मसिद्धान्त कर्म और उनके प्रतिफल के अनिवार्य सम्बन्ध को सूचित करता है। कर्मसिद्धान्त की सहयोगी नैतिक-मान्यताएँ हैं-पुनर्जन्म की धारणा (आत्मा की अमरता) एवं कर्म के चयन की स्वतन्त्रता। इसी प्रकार, कर्मफल के प्रदाता अथवा नैतिक-जीवन के आदर्श के रूप में ईश्वर के अस्तित्व की मान्यता भी भारतीयआचारदर्शन में रही है। इनके अतिरिक्त भारतीय-दर्शन में बन्धन (दुःख) और उसके कारण तथा बन्धन से मुक्ति (दु:ख-विमुक्ति) और उसके उपाय (साधनापथ) भी नैतिकमान्यता के अन्तर्गत आते हैं। जैन-दर्शन की नैतिक-मान्यताएँ
__ जैन-दर्शन की तत्त्वयोजना में स्वीकृत नव तत्त्वों का बहुत कुछ सम्बन्ध नैतिकमान्यता से है। फिर भी, पाश्चात्य-परम्परा के साथ सुविधापूर्ण तुलना के लिए जैनतत्त्वयोजना के आधार पर नैतिक-मान्यताओं को निम्न रूप में रखा जा सकता है।
(अ) कर्ता से सम्बन्धित नैतिक-मान्यताएं- (1) आत्मा का बौद्धिक एवं आनन्दमय स्वरूप, (2) आत्मा की अमरता या पुनर्जन्म का प्रत्यय, (3) आत्मा की स्वतन्त्रता।
(ब) कर्म से सम्बन्धित नैतिक-मान्यताएँ - (4) कर्मसिद्धान्त, (5) बन्धन (दुःख) तथा उसके कारण, (6) कर्म का शुभत्व, अशुभत्व एवं शुद्धत्व, (7) बन्धन से मुक्ति के उपाय (संवर एवं निर्जरा)।
(स) नैतिक-साध्य से सम्बन्धित नैतिक-मान्यताएं- (8) नैतिक-जीवन का ऐहिक-आदर्श (अर्हत्व), (9) नैतिक-जीवन का चरम साध्य (मोक्ष)। बौद्ध-आचारदर्शन की नैतिक-मान्यताएँ ।
चार आर्यसत्य ही बौद्ध-दर्शन की नैतिक-मान्यताएँ हैं। दुःख या अमंगल की उपस्थिति-यह प्राथमिक नैतिक-मान्यता है। दु:ख के कारण ही व्याख्या के रूप में प्रतीत्यसमुत्पाद दूसरी नैतिक-मान्यता है, जो कि जैन-दर्शन में स्वीकृत कर्मसिद्धान्त के समान
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