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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
इसी प्रकार, दुःखनिरोध का मार्ग (अष्टांगमार्ग) जैन- परम्परा के संवर और निर्जरा से तुलनीय है । दुःखनिरोध या निर्वाण की तुलना जैन - परम्परा के मोक्ष से की जा सकती है। गीता की तत्त्वयोजना
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गीता में परमतत्त्व के रूप में 'परमात्मा' को स्वीकार किया गया है और उसी के अंश रूप में जीवात्मा और प्रकृति (माया) की स्थिति मानी है। नैतिक-दर्शन की अपेक्षा से गीता का जीवात्मा जैन - - परम्परा का जीव है और प्रकृति के कारण अज्ञानावृत होना बन्धन है और आत्मा की सत्ता के साररूप परमात्मा को पा लेना मुक्ति है। गीता में बन्धन के कारणों एवं मुक्ति के उपायों की चर्चा तो है, लेकिन उनका तत्त्व के रूप में कोई विवेचन नहीं है ।
जैन, बौद्ध और गीता के तत्त्वों की तुलनात्मक तालिका
बौद्ध
गीता
नाम (चित्त या विज्ञान)
रूप
जैन
जीव
अजीव
बन्धन
आम्रव
संवर
निर्जरा
मोक्ष (निर्वाण )
4.
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दुःख
दु:खहेतु (प्रतीत्यसमुत्पाद)
दुःखनिरोध का मार्ग (अष्टांगमार्ग)
दुःखनिरोध (निर्वाण)
नैतिक- मान्यताएँ
प्रत्येक विज्ञान सुव्यवस्थित अध्ययन के लिए कुछ आधारभूत मान्यताएँ लेकर चलता है, जो कि उसकी समग्र तार्किक-समीक्षाओं और निष्कर्षों के मूल में होती हैं। उन्हीं आधार पर उस विज्ञान में तर्कसंगत सिद्धान्तों का निर्धारण होता है । अतः, प्रत्येक विज्ञान के लिए अपनी मान्यताओं में विश्वास और निष्ठा रखना आवश्यक है। यदि हम उन आधारभूत मान्यताओं में निष्ठा नहीं रखते हैं, तो हमारे लिए उस विज्ञान के निष्कर्ष निरर्थक हो जाते हैं। उदाहरणार्थ, यदि कोई प्रकृति की समरूपता तथा कारणता के नियम में विश्वास न रखे, तो उसके लिए भौतिक विज्ञान के निष्कर्षों का क्या मूल्य रहेगा ?
आचारदर्शन में नैतिक-मान्यताएँ भी वे आधारभूत तत्त्व हैं, जिनके अभाव में नैतिक-जीवन भ्रममात्र और दुर्बाध होता है। नैतिक मान्यताएँ आचारदर्शन के भव्य महल के वे स्तम्भ हैं, जिनके जर्जरित हो जाने पर भव्य महल ढह जाता है। आचारदर्शन का भव्य महल इन्हीं नैतिक-मान्यताओं के प्रति अटूट निष्ठा पर अवस्थित है। यदि हम इनके प्रति संदेहशील रहे, तो हमारे लिए नैतिकता अर्थहीन हो जाएगी, अत: हमें इन पर निष्ठा रखकर
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जीवात्मा
प्रकृति
और प्रकृति का संयोग
अज्ञान
ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग
परमात्मा की प्राप्ति (निर्वाण )
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