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________________ आचारदर्शन का तात्त्विक आधार 239 बौद्ध तत्त्वयोजना एवं उसकी नैतिक-प्रकृति बौद्ध-दर्शन में चार आर्यसत्यों एवं चार परमार्थों का विवेचन उपलब्ध है। चार आर्यसत्य इस प्रकार हैं- (1) दुःख, (2) दुःखका हेतु, (3) दुःखनिरोध और (4) दु:खनिरोध का मार्ग।अभिधम्मत्थसंगहो में निम्न चार परमार्थ बताए हैं- (1) चित्त, (2) चैतसिक, (3) रूप और (4) निर्वाण। बौद्ध-परम्परा के चारों आर्यसत्य पूर्णत: नैतिक-जीवनप्रक्रिया से सम्बद्ध हैं। दुःख चित्त के समस्त विषयों या जागतिक-उपादानों की नश्वरता, जन्म-मरण की भवपरम्पराऔर चित्त के बन्धन का प्रतीक है। दुःख का हेतु जन्म-मरण की भवपरम्परा के कारणों का सूचक है। वह अनैतिक-जीवन के कारणों एवं स्थितियों की व्याख्या करता है। वह बताता है कि दुःख या जन्म-मरण की परम्परा अथवा अनैतिकता के हेतु क्या हैं । इन हेतुओं की व्याख्या के रूप में ही उसे प्रतीत्यसमुत्पाद का नियम भी कहा जाता है। चतुर्थ आर्यसत्य-दुःख-निरोध का मार्ग-यह बताता है कि यदि दुःख सहेतुक है, तो हेतु का निराकरण भी सम्भव है। दु:ख के हेतुओं का निराकरण कैसे हो सकता है, यह बताना चतुर्थ आर्यसत्य का प्रमुख उद्देश्य है। इस रूप में वह नैतिक-जीवनपद्धति या अष्टांगमार्ग की व्याख्या करता है। तृतीय आर्यसत्य दुःख-निरोध नैतिक-साधना की फलश्रुति के रूप में निर्वाण-अवस्था का सूचक है। चारों परमार्थों में चित्त को नैतिकजीवन के प्रमुख सूत्रधार के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। चैतसिक चित्त की कुशल, अकुशल या नैतिक-अनैतिक अवस्थाएँ हैं। चैत्तसिक चित्त की अवस्थाएँ हैं और चित्त चैत्तसिक-अवस्थाओं का समूह है। रूप चित्त का आश्रयस्थान एवं कार्यक्षेत्र है। निर्वाण तृष्णा का क्षय हो जाना है। यदि हम चार आर्यसत्यों और चार परमार्थों पर सम्मिलित रूप से विचार करते हैं, तो उनमें तृतीय आर्यसत्य दुःखनिरोध और चतुर्थ परमार्थ निर्वाण एक ही है। चैत्तसिकों का या तो चित्त में अन्तर्भाव हो जाता है, या उनकाअन्तर्भाव प्रथम तीन आर्यसत्यों में किया जा सकता है। इस प्रकार, हमारे पास 6 प्रत्यय बचते हैं- (1) चित्त, (2) रूप, (3) दुःख, (4) दुःखहेतु, (5) दु:खनिरोध का मार्ग और (6) दुःख-निरोध या निर्वाण। जैन-तत्त्वयोजनासे तुलना ___ उपर्युक्त 6 प्रत्ययों की तुलना जैन-तत्त्वयोजना से निम्न रूप में की जा सकती है। बौद्ध-दर्शन का चित्त या विज्ञान तात्त्विक-दृष्टि से जैन-दर्शन के जीव के प्रत्यय से भिन्न है, फिर भी नैतिक-कर्ता के रूप में दोनों समान हैं। इसी प्रकार, रूप का प्रत्यय जैन-दर्शन के अजीव के तुल्य है। बौद्ध-परम्परा का दुःख जैन-परम्परा के बन्धन के समान है, जबकि दुःख-हेतु की तुलनाआस्रवसे की जा सकती है, क्योंकि जैन-परम्परा में आम्रव को बन्धन का और बौद्ध-परम्परा में दुःख-हेतु (प्रतीत्यसमुत्पाद) को दुःख का कारण माना गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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