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________________ 238 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पाप, (6) आस्रव, (7) संवर, (8) निर्जरा और (9) मोक्ष-ये नौ तत्त्व माने गए हैं।40 तत्त्वार्थसूत्र में पुण्य और पाप को आस्रव के अन्तर्गत मानकर सात तत्त्वों का विधान है।" जीव की नैतिक-कर्ता के रूप में और अजीव की नैतिक-कर्ता के कर्मक्षेत्र बाह्य-जगत् के रूप में तात्त्विक-सत्ताएँ हैं। जीव और अजीव के अतिरिक्त शेष तत्त्व वस्तुत: नैतिक-प्रकृति के हैं। उनका सम्बन्ध सत्ता से नहीं, नैतिक-प्रक्रिया से है। वे नैतिक-प्रक्रिया के रूप में ही अपना अस्तित्व रखते हैं, उससे स्वतन्त्र उनकी कोई सत्ता नहीं है। मूल द्रव्य तो जीव और अजीव ही हैं, शेष तत्त्व तो जीव और कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध की सापेक्ष-अवस्थाओं का कथन करते हैं। दूसरे शब्दों में, ये विभिन्न नैतिक-अवस्थाओं को ही अभिव्यक्त करते हैं। बन्धन का कारण क्या है ? बन्धन क्यों और कैसे होता है ? उससे छूटने का उपाय क्या है ? या कैसे छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है ? छुटकारा मिलने के पश्चात् आत्मा किस स्थिति में रहती है ? आदि नैतिक-समस्याओं के समाधान का प्रयास इस तत्त्वयोजना में परिलक्षित है। पुण्य और पाप कर्मों के शुभत्व अथवा अशुभत्व का निश्चय करते हैं, आस्रव बन्धन के कारण की व्याख्या करता है, तो बन्ध आत्मा के बन्धन के स्वरूप एवं प्रकृति का विवेचन करता है। संवर बन्ध के निरोध का उपाय है, तो निर्जरा बन्धन की श्रृंखला को तोड़ने की विधि है और मोक्ष सारी नैतिक-साधना की फलश्रुति है। इस तत्त्वयोजना में जीव और अजीव-ये दो तत्त्व मात्र ज्ञेय माने गए हैं, जबकि पाप, आम्रव और बन्ध-ये तीनों हेय (त्याज्य) और पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये चारों उपादेय (वरेण्य) माने गए हैं। पाप, आम्रव और बन्ध-इन तीन से बचना चाहिए, जबकि पुण्य, संवर और निर्जरा-इन तीन का आचरण करना चाहिए।अन्तिम तत्त्व मोक्ष वह आदर्श है, जिसकी उपलब्धि के लिए इनका आचरण किया जाता है। यद्यपि निर्वाण के साधक के लिए पुण्य का आचरण भी लक्ष्य नहीं है, फिर भी साधना-मार्ग में सहायक होने के कारण उसकी आवश्यकता स्वीकार की गई है। निर्वाण के साधक के लिए पुण्य भी बन्धन का कारण होने से शास्त्रकारों ने पुण्य को भी हेय या त्याज्य ही माना है। आचार्य श्री विनयचन्द्र कहते हैं, 'पुण्य-पापआम्रव परिहरिये, हेय पदारथ मानो रे।' एक अन्य आचार्य ने भी ज्ञेय, हेय एवं उपादेय के वर्गीकरण में पुण्य को हेय ही माना है। उनके अनुसार, बन्ध, आम्रव, पुण्य और पाप हेय (त्याज्य) हैं, जीव और अजीव-येदो ज्ञेय हैं तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष उपादेय (वरेण्य)। इस प्रकार, जैन-तत्त्वयोजना की यह प्रकृति उसमें नैतिक-पक्ष की प्रमुखता को स्पष्ट करती है और हमारे उस पूर्व कथन का समर्थन करती है कि 'जैन-दर्शन में तत्त्वमीमांसा के आधार पर नैतिकता खड़ी नहीं हुई है, वरन् नैतिकता के आधार पर तत्त्वमीमांसा की योजना की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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