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आचारदर्शन का तात्त्विक आधार
एक-दूसरे से स्वतन्त्र नहीं रहते। द्रव्य के बिना कोई पर्याय नहीं होती और पर्यायों से शून्य कोई द्रव्य नहीं होता । द्रव्य की पर्यायें (परिवर्तन अवस्थाएँ) दो प्रकार की होती हैं o (1) स्वभावपर्याय और (2) विभावपर्याय। जो पर के निमित्त से होती हैं, वे ही विभावपर्याय हैं। आत्मद्रव्य की विभावपर्यायें, जो पुद्गल के निमित्त से होती हैं, आत्मा के बन्धन की सूचक हैं; जबकि स्वभावपर्याय मुक्ति की सूचक है। नैतिक जीवन का अर्थ है विभावपर्याय से स्वभाव पर्याय में आना। इस प्रकार, जैनदर्शन में सत् दो प्रकार के माने गए हैं- ( 1 ) आध्यात्मिक (जीव) और (2) भौतिक (अजीव)। ये दोनों परिणामीनित्य हैं। जैन- दृष्टिकोण की गीता से तुलना
गीता का दृष्टिकोण कुछ अर्थों में जैन-दर्शन के समान है और कुछ अर्थों में भिन्न है। जहाँ जैन दर्शन आध्यात्मिक एवं भौतिक-ऐसी दो स्वतन्त्र सत्ताएँ मानता है, वहाँ गीता में आध्यात्मिक (जीवात्मा) और भौतिक (प्रकृति) सत्ताओं को स्वीकार करते हुए भी उन्हें परमसत्ता का ही अंग माना गया है। जीवात्मा और प्रकृति (माया) - दोनों ही परमेश्वर के अंग हैं। क्षेत्र या भौतिक-सत्ता के सन्दर्भ में गीता और जैन दर्शन दोनों का ही दृष्टिकोण समान है। दोनों ही उसे परिणामीनित्य मानते हैं। जहाँ तक आध्यात्मिक सत्ता (आत्मा) का प्रश्न है, गीता में उसे कूटस्थनित्य माना गया है, जबकि दर्शन में उसे भी परिणामीनित्य माना गया है।
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जैन, बौद्ध और गीता के दर्शनों में सत् के स्वरूप की तुलना को निम्न तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है
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दर्शन
जैन
बौद्ध
गीता
सत्ताएँ
जीव (आत्मा)
अजीव (भौतिक सत्ता)
नाम (विज्ञान या चित्त)
रूप (भौतिक सत्ता )
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स्वरूप
परिणामी नित्य
परिणामीनित्य
परिणामी
परिणामी
कूटस्थनित्य
कूटस्थनित्य
परिणामी नित्य
परमात्मा
जीव
प्रकृति
3. जैन, बौद्ध और गीता में तत्त्वयोजना की तुलना
सत् के स्वरूप की चर्चा एवं नैतिक-समीक्षा करने के बाद अब हम जैन दर्शन की तत्त्वयोजना की व्याख्या एवं उसकी गीता और बौद्ध दर्शन से तुलना करेंगे। जैन तत्त्वयोजना एवं उसकी नैतिक प्रकृति
उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार (1) जीव, (2) अजीव, (3) बन्ध, (4) पुण्य, (5)
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