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________________ आचारदर्शन का तात्त्विक आधार 233 क्या स्थान होगा, यह अवश्य ही विचारणीय है। सूत्रकृतांग में भी सत् की भौतिकवादी तथा देहात्मवादी-विचारधारा को नैतिकता की समुचित व्याख्या के लिए असंगत माना गया है, क्योंकि वह शुभाशुभ कर्मों के फलभोग की व्याख्या नहीं कर पाती है।7 कांट नैतिकता के लिए आत्मा की अमरता के विचार को अनिवार्य समझते हैं। इस प्रकार, सत् की भौतिकवादी-मान्यता नैतिकता की दृष्टि से अनुपयुक्त ही है।। अब हम सत् की अनित्यवादी और क्षणिकवादी-मान्यता पर थोड़ा विचार करें। बौद्ध-दर्शन का अनित्यवादी-दृष्टिकोण बौद्ध-दर्शन के अनुसार परिवर्तनही सत् है। उसमें सत् को एक प्रक्रियामाना गया है। यहाँ सत्का लक्षण अर्थक्रियाकारित्व है। इसमें वस्तुतत्त्वको उत्पादव्ययधर्मी कहा गया है। परिवर्तन की धारणा को अनेक क्षणिक सत्ताओं की धारणाओं से दूर नहीं माना गया है, जो प्रथम क्षण में उत्पन्न होती है और दूसरे क्षण में किसी नवीन सत्ता को जन्म देकर समाप्त हो जाती है। इस प्रकार, सत् का यह प्रक्रिया या परिवर्तनशीलता का सिद्धान्त अनित्यवाद या क्षणिकवाद बन जाता है। (ब) अनित्यवाद एवं क्षणिकवाद - सैद्धान्तिक-दृष्टि से जैन-दार्शनिकों का इस धारणा के विपरीत यह कहना है कि यह ठीक है कि उत्पत्ति के बिना नाश और नाश के बिना उत्पत्ति सम्भव नहीं है, लेकिन उत्पत्ति और नाश-दोनों का आश्रय कोई पदार्थ होना चाहिए। एकान्तनित्य-पदार्थ में परिवर्तन सम्भव नहीं है और यदि पदार्थों को एकान्त-क्षणिक माना जाए, तो परिवर्तित कौन होता है, यह भी नहीं बताया जा सकता। आचार्य समन्तभद्र इस दृष्टिकोण पर आक्षेप करते हुए कहते हैं कि एकान्त-क्षणिकवाद को मानने पर प्रेत्यभाव (पुनर्जन्म) असम्भव होगा और प्रेत्यभाव के अभाव में पुण्य-पाप क्रियाओं के प्रतिफल तथा बन्धन और मोक्ष भी सम्भव नहीं होंगे। एकान्त-क्षणिकवाद में प्रत्यभिज्ञा भी सम्भव नहीं है और प्रत्यभिज्ञा के अभाव में कार्यारम्भ भी नहीं होगा। फिर फल कहाँ से ?' युक्त्यनुशासन में भी कहा गया है कि क्षणिकवाद में बन्धन और मोक्ष का कोई स्थान नहीं। संवृतिसत्य (व्यवहार) के रूप में भी उन्हें नहीं बताया जा सकता, क्योंकि परमार्थ (सत्) तो मृषा-स्वभाव (नि:स्वभाव) है (यहाँ नागार्जुन के दृष्टिकोण पर कटाक्ष किया गया है)। मुख्य को समाप्त कर देने पर गौणका विधान सम्भव नहीं, अर्थात् यदि परमार्थ ही नि:स्वभाव है, तो फिर व्यवहार (संवृतिसत्य) का विधान कैसे होगा? हे विचारक! तेरी विचारदृष्टि विभ्रान्त है। प्रत्येक क्षण में उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाने वाले भंगों में बिना किसी नित्यतत्त्व के कोई तादात्म्य नहीं होगा और उनके पृथक्-पृथक् होने पर न तो पारिवारिक सम्बन्ध सम्भव होंगे और नधन का लेनदेन ही सम्भव होगा। संक्षेप में, क्षणिकवाद पर पाँच आक्षेप लगाए गए हैं- (1) कृतप्रणाश, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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