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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
नहीं हो सकतीं । कुमारिल ने भी शंकर के दर्शन में यही दोष दिखाया है । 2' वस्तुतः, परमार्थ और व्यवहार दो सत्ताएँ नहीं, सत् के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं और दोनों ही यथार्थ हैं।
जैन- दार्शनिकों का अद्वैतवाद से न तो इसलिए कोई विवाद है कि वह पारमार्थिकदृष्टि से अभेद को मानता है, क्योंकि द्रव्यार्थिक दृष्टि से अभेद तो उन्हें भी स्वीकार है और न इसलिए कोई विरोध है कि अद्वैतवाद व्यावहारिक स्तर पर नैतिकता की धारणा को स्वीकार करता है, क्योंकि जैन- विचारकों को भी यही दृष्टिकोण मान्य है। जैन-दर्शन का अगर अद्वैतवाद से कोई विरोध है, तो वह इतना ही है कि जहाँ अद्वैतवाद व्यवहार को मिथ्या मानता है, वहाँ जैन- दर्शन व्यवहार को भी यथार्थ मानता है। अद्वैतवाद के इस दृष्टिकोण के प्रति जैन- दर्शन का आक्षेप यह है कि असत्-व्यवहार से सत्-परमार्थ को कैसे प्राप्त किया जा सकता है। असत्-नैतिकता सत् परमतत्त्व का साक्षात्कार नहीं करा सकती। अद्वैतवाद से असत् व्यावहारिक- नैतिकता और सत् पारमार्थिक- परमतत्त्व में कोई सम्बन्ध ही नहीं बन जाता, क्योंकि उनमें एक असत् और दूसरा सत् है, जबकि जैन-विचार में दोनों ही सत् हैं। जैन-दर्शन में व्यवहार और परमार्थ- दोनों ही सत् की दो दृष्टियाँ होने से परस्पर सम्बन्धित हैं, जबकि अद्वैतवाद में वे परस्पर विरोधी सत्ताएँ होने से असम्बन्धित हैं। यही कारण है कि जैन- दर्शन की सत् व्यावहारिक नैतिकता सत् पारमार्थिक आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करा सकती है, क्योंकि सत् से ही सत् पाया जा सकता है, असत् से सत् नहीं पाया जा सकता। विचारपूर्वक देखें, तो अद्वैतवाद भी व्यवहार को असत् कहने का साहस नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी व्यावहारिक सत्ता की धारणा माया पर अवलम्बित है और यदि माया असत् नहीं है तो व्यावहारिक स्तर पर होने वाले भेद एवं परिवर्तन भी असत् नहीं हैं । यहाँ हम शंकर और जैन-दर्शन में उतनी दूरी नहीं पाते, जितनी कि आलोचकों द्वारा बताई गई है। 2 (ब) सत् के अनेक, अनित्य और भौतिक स्वरूप की नैतिक-समीक्षा सत् के अद्वेय, अविकार्य (अव्यय) और आध्यात्मिक स्वरूप के ठीक विपरीत, सत् की वह धारणा है जो उसे अनेक, अनित्य और भौतिक मानती है। महावीर के समकालीन अजितकेशकम्बल इस मत को मानने वाले प्रतीत होते हैं। यदि सत् का स्वरूप भौतिक है, नैतिकता के लिए कोई भी स्थान नहीं रहेगा, क्योंकि नैतिक-विवेक, नैतिक-म - मूल्य और नैतिक-निर्णय, सभी चैतसिक-जीवन की अवस्थाएँ हैं। नैतिक मूल्य मात्र जैविक नहीं हैं, वे अतिजैविक एवं आध्यात्मिक भी हैं। भौतिक-सत् में ऐसे तुल्यों के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। नैतिक मूल्य और नैतिक-परमश्रेय किसी आध्यात्मिक सत्ता पर ही आधृत हो सकते हैं, उनका आदि-स्रोत आध्यात्मिक सत्ता है, भौतिक-सत्ता नहीं। दूसरे, यदि सत् का स्वरूप भौतिक है और चेतना का प्रत्यय शरीर के साथ ही उत्पन्न होता है और विनष्ट हो जाने पर समाप्त हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में भी नैतिक जीवन के लिए
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