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________________ आचारदर्शन का तात्त्विक आधार 231 विशेष से ही है। एक अपेक्षा के द्वारा दूसरी अपेक्षाओं का समग्र निषेध तो कभी हो नहीं सकता। किसी तीसरी अपेक्षा से दोनों ही यथार्थ हो सकते हैं। यदि हम कहें कि राम दशरथ की अपेक्षा से पुत्र हैं और इसलिए वे दशरथ की अपेक्षा से पिता नहीं हैं, तो इसमें उनके पितृत्व का समग्र निषेध नहीं होता; लव और कुश की अपेक्षा से वे पिता हो सकते हैं। अद्वैतवादी गलती यह करते हैं कि वे परमार्थदृष्टि की अपेक्षा से व्यवहारका पूर्ण निषेध मान लेते हैं। दशरथ की अपेक्षा से राम का पितृत्व मिथ्या है और पुत्रत्व सत्य है और लव-कुश की अपेक्षा से राम का पुत्रत्व मिथ्या है और पितृत्व सत्य है; लेकिन राम की अपेक्षा से तो न पितृत्व मिथ्या है न पुत्रत्व मिथ्या है, वरन् दोनों ही यथार्थ हैं। उसी प्रकार, परमार्थदृष्टि की अपेक्षा से व्यावहारिक-भेद मिथ्या है, पारमार्थिक-अभेद सत्य है।व्यवहारदृष्टि की अपेक्षा से व्यावहारिक भेद सत्य है, पारमार्थिक-अभेद मिथ्या है, लेकिन परमतत्त्व की अपेक्षासेन अभेद मिथ्या है, न भेद मिथ्या है, दोनों ही यथार्थ हैं। अद्वैतवादी-विचारक यह क्यों भूल जाते हैं कि भेद और अभेद तो परमतत्त्व के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं। वेस्व-अपेक्षा से यथार्थ और पर-अपेक्षासे अयथार्थ होते हुए भी उस परमतत्त्व की अपेक्षासेतो दोनो ही यथार्थ हैं। अद्वैतवादी-दर्शन का मानदण्ड लेकर नापने वाले मनीषी डॉ. राधाकृष्णन् जैन-दर्शन के अनेकान्तवादी-यथार्थवादको मार्ग में पड़ाव डालने वाला कहते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि अद्वैतवादी-दर्शन केवल अभेद की अपेक्षासे व्यवहार-जगत् के भेदका निषेध कर बीचमार्ग में पड़ाव डाल देता है। वह आगे बढ़कर यह क्यों नहीं कहता कि व्यवहार के भेद की अपेक्षासे परमार्थ का अभेद या अद्वैत होनाभी मिथ्या है और इससे भी आगे बढ़कर यह क्यों नहीं स्वीकार करता कि परमतत्त्वकी अपेक्षा सेतो भेद और अभेद-दोनों ही यथार्थ हैं। अद्वैतवादी पारमार्थिक-अभेद की अपेक्षा व्यावहारिक-भेदको निम्नस्तरीय मानकर गलती करते हैं। पारमार्थिक-दृष्टि और व्यावहारिक-दृष्टि तो सत के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं, उनमें से किसी को भी एक-दूसरे से हीन नहीं माना जा सकता। दोनों ही अपनी-अपनी जगह यथार्थ हैं। व्यावहारिक-भेद भी उतना ही यथार्थ है, जितना पारमार्थिक-अभेद। दोनों में कोई तुलना नहीं की जा सकती। किन्हीं दो भिन्न-भिन्न स्थितियों से एक ही वस्तु के खींचे हुए चित्रों में कोई मिथ्या नहीं हो सकता। दोनों ही चित्र उन-उन स्थितियों की अपेक्षा से वस्तु का सही स्वरूपही प्रकट करते हैं। दोनों ही समानरूप में यथार्थ हैं। उसी प्रकार, सत् का भेदवादी-दृष्टिकोण भी उतना ही यथार्थ है, जितना सत् का अभेदवादी-दृष्टिकोण, क्योंकि दोनों सत्ताके ही पक्ष हैं। शांकरदर्शन की मूलभूत कमजोरी यह है कि वह पारमार्थिक और व्यावहारिक-ऐसी दो सत्ताएँ खड़ी कर स्वयं ही अपने सिद्धान्त से पीछे हट जाता है। यदि शंकर दोनों की वास्तविक सत्ता मानते हैं, तो उनका अद्वैत खण्डित होता है। दूसरी ओर, यदि व्यवहार को मिथ्या कहते हैं, तो व्यावहारिक और पारमार्थिक-ऐसी दो सत्ताएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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