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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
रामानुज में कोई विशेष दूरी नहीं रह जाती। स्वयं डॉ.रामानन्द भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि रामानुज और शंकर में वह दूरी नहीं है, जैसी परवर्ती शंकरानुयायियों ने बतायी है।23
यदिशंकर एकान्त-अद्वैतवादी हैं, तो निश्चित ही उनके दर्शन में आचारदर्शन की सम्भावनाएँधूमिल हो जाएंगी, लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। एकतत्त्ववाद में आचारदर्शन की सम्भावना तो तब समाप्त हो जाती है, जबकि हर स्तर पर ही अभेद को माना जाए, लेकिन अद्वैत के प्रस्तोता आचार्य शंकर भी हर स्तर पर अभेद की धारणा को स्वीकार नहीं करते। अद्वैतवादी-विचारधारा के अनुसार परमतत्त्व भेद एवं सीमाओं से निरपेक्ष है। उसका कहना है कि भेद मिथ्या है, लेकिन भेद याअनेकता के मिथ्या होने का अर्थ यह नहीं कि वह प्रतीति का विषय नहीं है। यद्यपि समस्या यह भी है कि मिथ्या-अनेकता कैसे प्रतीति का विषय बन जाती है? लेकिन यहाँ इस चर्चा की गहराई में जाना इष्ट नहीं है। अद्वैतवाद यह मानकर चला है कि प्रतीति की दृष्टि से न केवल वस्तुगत-अनेकता है, वरन् व्यक्तिगतअनेकता भी है और प्रतीति के क्षेत्र में इसभेद तथा अनेकता के कारण बन्धन और मुक्ति एवं नैतिकता और धर्म की सम्भावनाएँ भी हैं। इस प्रकार, अद्वैतवादी भी केवल पारमार्थिकस्तर पर ही अभेद को मानते हैं; व्यावहारिक-स्तर पर तो उन्हें भी भेद स्वीकार है। व्यावहारिक-स्तर पर जब भेदस्वीकार कर लिया जाता है, तो आचारदर्शन की सम्भाव्यता अवगम्य हो जाती है। हमारी दृष्टि में अद्वैतवादी जब तक पारमार्थिक-स्तर पर अभेद और अद्वयता और व्यावहारिक-स्तर पर भेद और अनेकता को स्वीकार करते हैं, तब तक कोई गलती नहीं करते। स्वयं जैन-विचारकभी संग्रहनय एवं द्रव्यार्थिक-दृष्टि सेतो वस्तुतत्त्व में अभेद मानते ही हैं।24 इस आधार पर भी अद्वैतवाद की आलोचना करना उचित नहीं होगा किअद्वैत-दर्शन में नैतिकताकीअवगम्यता व्यावहारिक-स्तर पर होती है। जैन-विचारधारा में भी नैतिकता की अवधारणा व्यवहारनय या पर्यायार्थिक-दृष्टि से ही सम्भव है। शांकरदर्शनकी मूलभूत कमजोरी
परमार्थदृष्टि से परमार्थ के अभेदको ही सत्य और व्यवहार के भेदको मिथ्या कहकर भी अद्वैतवादी कोई गलती नहीं करते हैं। पारमार्थिक-अभेद की दृष्टि से व्यावहारिक-भेद मिथ्या है- यह ठीक है; लेकिन उससे आगे बढ़कर हमें यह भी मानना पड़ेगा कि व्यावहारिकभेद की अपेक्षा से पारमार्थिक-अभेद भी मिथ्या होगा, क्योंकि वस्तुतत्त्व स्वापेक्षा से सत्य होता है, परापेक्षासे तो मिथ्या होता ही है। अद्वैतवादी आधी दूर आकर रुक जाते हैं। आगे बढ़कर व्यावहारिक-भेद की अपेक्षा से पारमार्थिक-अभेद को मिथ्या कहने का वे साहस नहीं करते। जब पारमार्थिक-अभेददृष्टि की अपेक्षा व्यावहारिक-भेददृष्टि को मिथ्या कहा जाता है, तो हमें यह ध्यान में रखना होगा कि यहाँ उसके मिथ्यात्व का प्रतिपादन अपेक्षा
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