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आचारदर्शन का तात्त्विक आधार
डॉ. अर्कहार्ट का 'सर्वेश्वरवाद और जीवन का मूल्य' सर्वेश्वरवादी (एकत्ववादी) विचारणा में आचारदर्शन की असम्भावना को सिद्ध करने वाला महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । वे लिखते हैं कि यह ब्रह्म (सत्) निर्गुण और भेदातीत है, अतः शुभाशुभ भेद से भी परे है। शुभाशुभ के भेद का निराकरण आचारशास्त्र के आधार का ही उन्मूलन कर देता है । वेदान्त में व्यक्तित्व को भी मिथ्या माना गया है। शुभाशुभ के भेद का निराकरण नैतिक निर्णय को असम्भव बना देता है और उसके साथ ही व्यक्ति की वास्तविकता का निषेध नैतिक-निर्णय को अनावश्यक भी बना देता है । 1" कठोर अद्वैतवादी विचारधारा की नैतिक अक्षमता का चित्रण करते हुए आप्तमीमांसा में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि एकान्त-अद्वैतवाद की धारणा में शुभाशुभ कर्मों का भेद, सुख-दुःखादि का फलभेद, स्वर्ग-नरक आदि का लोकभेद नहीं रहता है, न सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान तथा बन्धन और मोक्ष का ही भेद रहता है, 20 अतः ऐसा सिद्धान्त नैतिक दृष्टि से सक्षम नहीं हो सकता। नैतिकता के लिए तो द्वैत एवं अनेकता आवश्यक है। डॉ. नथमल टाँटिया लिखते हैं कि एकान्त-अद्वैतवादी धारणा को स्वीकार करने का अर्थ होगा - समाज, वातावरण, परलोक तथा नैतिक और धार्मिक जीवन एवं तत्सम्बन्धी संस्थाओं की पूर्ण- समाप्ति, लेकिन ऐसा दर्शन मानव-जाति के लिए उपादेय नहीं कहा जा सकता । 2" यह एक निश्चित तथ्य है कि कठोर एकतत्त्ववादी - सत् की व्याख्या, जो परिवर्तन को मिथ्या स्वीकार करती है, आचारदर्शन का तात्त्विक - आधार बनने में समर्थ नहीं है । शंकर का दृष्टिकोण एकान्त - एकतत्त्ववादी नहीं है
शंकराचार्य के सत्-सम्बन्धी दृष्टिकोण को ऐकान्तिक रूप में एकतत्त्ववादी मानकर उसमें जो आचारदर्शन की असम्भावना सिद्ध की जाती है, वह उचित नहीं है। डॉ. रामानन्द
भी अपने ग्रन्थ 'शंकराचार्य का आचारदर्शन' मे एकतत्त्ववादी, सर्वेश्वरवादी एवं मायावादीविचारप्रणाली का निरसन कर शांकर- वेदान्त में भी जीवन एवं जगत् की सत्ता को स्वीकार किया। वे लिखते हैं, 'जीव और जगत्- दोनों अत्यन्त विविक्त सत्ताएँ हैं, चाहे वे ब्रह्म से पृथक् कल्पनीय न हों। मायावाद का प्रसिद्ध सिद्धान्त जगत् की सत्ता के प्रसंग में नितान्त असंगत है। जीवन की सत्ता वेदान्त का मूलाधार है- मोक्षावस्था में जीवत्व और व्यक्तित्व अक्षुण्ण रहने की सम्भावना के साथ वेदान्त में आचारदर्शन की सम्भावना भी अवगम्य हो जाती है।'
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इस प्रकार, हम देखते हैं कि आचारदर्शन की सम्भावना के लिए सत्-सम्बन्धा कठोर एकतत्त्ववाद एवं अपरिवर्तनशीलता के सिद्धान्त को छोड़ना आवश्यक हो जाता है। डॉ. रामानन्द ने शांकर-दर्शन में आचारदर्शन की सम्भाव्यता को सिद्ध करने के प्रयास में उसे जिस स्तर पर लाकर खड़ा किया है, वहाँ शांकर- दर्शन सत् की कठोर एकतत्त्ववादीधारणा से दूर हटकर अभेदाश्रित-भेद की उस धारणा पर आ जाता है, जहाँ शंकर और
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