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________________ आचारदर्शन का तात्त्विक आधार आत्मा के अधिक निकट नहीं कही जा सकतीं। गीता के सत्-सम्बन्धी दृष्टिकोण की मूलात्मा सांध्य दर्शन और रामानुज के अधिक निकट है। 4. चौथे वर्ग का सिद्धान्त भी सत् में भेद और अभेद- दोनों को स्वीकार करता है, लेकिन तीसरे वर्ग में इसका अन्तर इस आधार पर है कि यह अभेद को गौण और भेद को प्रमुख मानता है। इसी मत का प्रतिनिधित्व करते हैं। डॉ. पद्मराजे ने वैशेषिक दर्शन को भी इसी वर्ग का माना है। 227 - 5. पाँचवें वर्ग के सिद्धान्त में सत् को भेद और अभेदमय मानते हुए किसी एक को प्रमुख नहीं माना गया, वरन् दोनों को परस्परापेक्षी और सहयोगी माना गया है। भेद और अभेद दोनों सापेक्ष हैं और एक-दूसरे पर निर्भर होकर ही अपना अस्तित्व रखते हैं, स्वतन्त्र होकर नहीं । जैन दर्शन इसी वर्ग में आता है। यदि हम विभिन्न भारतीय-दर्शनों या डॉ. पद्मराजे के उपर्युक्त वर्गीकरण के आधार पर सत्-सम्बन्धी सिद्धान्तों की नैतिक-समीक्षा करने का प्रयत्न करेंगे, तो काफी विस्तार में जाना होगा तथा कुछ स्थितियों में उनकी एक-दूसरे से निकटता के कारण अनावश्यक पुनरावृत्तियों से बचना सम्भव नहीं हो सकेगा। दूसरे, डॉ. पद्मराजे के इस वर्गीकरण में बौद्ध दर्शन को अद्वैत वेदान्त के ठीक विरोध में दिखाया गया है, यह भी समीचीन नहीं है, - - अतः हम समीक्षा की सुविधा की दृष्टि से पूर्वचर्चित तीन आधारों पर सत्-सम्बन्धी दो व्याघाती दृष्टिकोण प्रस्तुत करेंगे और उनकी नैतिक दृष्टि से समीक्षा करते हुए इस सम्बन्ध में जैन- दर्शन, बौद्ध दर्शन और गीता की स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे। (अ) सत् का स्वरूप अद्वय, अविकार्य (अपरिणामी ) और आध्यात्मिक है । (शंकर) (ब) सत् का स्वरूप अनेक, परिवर्तनशील (अनित्य) और भौतिक है। (अजित केशकम्बल) प्राचीन जैन और बौद्ध-आगमों में हमें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद तथा अक्रियावाद और क्रियावाद के नाम से सत्-सम्बन्धी दो परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों का उल्लेख मिलता है, जो बहुत कुछ क्रमश: प्रथम और दूसरे वर्ग के निकट आते हैं। अब हमें यह देखना है कि सत्-सम्बन्धी उपर्युक्त दोनों परस्पर विरोधी दृष्टिकोण नैतिक - जीवन की व्याख्या करने में कहाँ तक सफल अथवा असफल होते हैं। Jain Education International 2. (अ) सत् के अद्वय, अविकार्य एवं आध्यात्मिक-स्वरूप की नैतिक-समीक्षा सत्-सम्बन्धी एकतत्त्ववादी एकान्त धारणा में आचारदर्शन का क्या स्थान हो सकता है, यह चिन्त्य है । यदि सत् (ब्रह्म) भेदातीत है, तो न तो उसमें वैयक्तिक-साधक की सत्ता बनती है और न शुभाशुभ के लिए कोई स्थान हो सकता है। आचारदर्शन के बन्धन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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