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________________ 226 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन 6. सांख्यदर्शन सत् को भौतिक (प्रकृति) एवं आध्यात्मिक (पुरुष)-दोनों प्रकार का मानता है। साथ ही, यह प्रकृति के सम्बन्ध में परिणामवाद को और पुरुष के सम्बन्ध में अपरिणामवाद (कूटस्थता के प्रत्यय) को स्वीकार करता है। इसी प्रकार, वह प्रकृति के सन्दर्भ में अभेदमें भेद की कल्पना करता है, जबकि पुरुष के सम्बन्ध में वास्तविक अनेकता को स्वीकार करता है। 7. न्याय-वैशेषिक-दर्शन में सत् की अनेकता पर बल दिया जाता है, यद्यपि वह अनेकता में अनुस्यूत एकता को स्वीकार करता है। उसमें सत् आध्यात्मिक एवं भौतिकदोनों प्रकार का है। 8. शांकर-वेदान्त के अनुसार सत् या परमार्थ (ब्रह्म) आध्यात्मिक, अद्वय एवं अविकार्य है तथा जीव और जगत् की सत्ताएँ मात्र विवर्त हैं। 9. विशिष्टाद्वैतवाद (रामानुज) के अनुसार सत् (ईश्वर) एक ऐसी सत्ता है, जिसमें भौतिक एवं आध्यात्मिक-दोनों सत्ताएँ समाविष्ट हैं। वे परमसत्ता के परिणामीपन को स्वीकार करते हैं। उनका दर्शन ब्रह्म-परिणामवाद है, साथ ही वे अभेद में भेद की सम्भावना को स्वीकार करते हैं। स्वर्गीय डॉ. पद्मराजे ने सत्-सम्बन्धी भारतीय-दृष्टिकोणों को पाँच वर्गों में विभाजित किया है।" __ 1. प्रथम वर्ग में सत् का अद्वय-सिद्धान्तआता है, जो यह मानता है कि सत् अद्वय, अव्यय, अविकार्य एवं कूटस्थ है, परिवर्तन याअनेकतामात्र विवर्त है। सत्-सम्बन्धी इस विचार-प्रणाली का प्रतिनिधित्व शंकराचार्य करते हैं। डॉ. चन्द्रधर शर्मा के मतानुसार विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्ध-विचारणाएँ भी इसी वर्ग में आ सकती हैं। ___2. दूसरे वर्ग में सत् का परिवर्तनशीलता का सिद्धान्त आता है। इसके अनुसार, सत् का लक्षण अनित्यता, क्षणिकता एवं परिवर्तनशीलता है। इस विचारधारा का अनुसरण प्रारम्भिक बौद्ध-दर्शन करता है। प्राचीन जैन और बौद्ध-आगमों में वर्णित उच्छेदवाद को भी इसी वर्ग में रखा जा सकता है। 3. तीसरे वर्ग में सत् का वह सिद्धान्त आता है. जिसके अनुसार सत में भेद और अभेद-दोनों के होते हुए भी अभेदप्रधान है और भेद गौण है। भेदअभेद के अधीन है। इस विचारधारा का प्रतिनिधित्व विशिष्टाद्वैतवाद के प्रवर्तक रामानुज करते हैं। डॉ. पद्मराजे के अनुसार, इनके अतिरिक्त सांख्यदर्शन, निम्बार्क, भास्कराचार्य, यादव प्रकाश तथा पाश्चात्य-विचारक हेगल भी इसका समर्थन करते हैं। गीता को भी इसी वर्ग में रखा जा सकता है। यद्यपि आचार्य शंकर ने उसे अद्वैतवादी और आचार्य मध्व ने इसे द्वैतवादी सिद्ध करने का प्रयास किया है, फिर भी हमारी विनम्र सम्मति में उनकी व्याख्याएँ गीता की मूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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