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________________ आचारदर्शन का तात्त्विक आधार 223 शाश्वत नहीं है, शरीर और आत्मा एक हैं, या शरीर और आत्मा भिन्न हैं, मरण के पश्चात् तथागत को पुनर्जन्म प्राप्त होता है या नहीं, आदि बातों पर हम विश्वास रखें या न रखें; जन्म, जरा, मरण, परिदेव तो हैं ही, इसलिए मालुक्यपुत्त ! मैं इन बातों की चर्चा में नहीं पड़ा, क्योंकि उस वाद-विवादसे ब्रह्मचर्य में किसी भी प्रकार की स्थिरता नहीं आ सकती। उस वाद से वैराग्य उत्पन्न नहीं होगा, पापका निरोध नहीं होगा और शान्ति, प्रज्ञा, सम्बोध एवं निर्वाण की प्राप्ति नहीं होगी। इस प्रकार, बुद्ध ऐसी तत्त्वमीमांसाको निरर्थक समझते थे, जिसका व्यावहारिक-जीवन कीसमस्याओं से सीधा सम्बन्ध नहीं था और जिसमें निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव नहीं था। ऐसे प्रश्नों को उन्होंने अव्याकृत कहकर छोड़ दिया। बुद्ध ने ऐसे तत्त्वविचारकों को, जोजगत् शाश्वत है या अशाश्वत है,आत्माअमर है या नश्वर है, आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में वाद-विवाद करते हुए अपना समय व्यर्थ गंवाते हैं, निर्वाण का अधिकारी नहीं माना। उनकी दृष्टि में ऐसे लोग मार के बन्धन में फंस जाते हैं। वे केवल उन्हीं तात्त्विक-प्रश्नों की चर्चा करना उचित समझते थे, जिसका नैतिक-जीवन से सीधा सम्बन्ध हो और इस रूप में उन्होंने केवल चार आर्यसत्यों या चार परमार्थों की चर्चा की। गीताका दृष्टिकोण गीता में भी तत्त्वमीमांसाऔरआचारदर्शन में अनिवार्य सम्बन्धस्वीकार किया गया है। अर्जुन कामोह दूर करने और उसे कर्म में प्रवृत्त करने के लिए गीता में दिए गए अधिकांश तर्क सात्त्विक हैं। प्रथम तत्त्वमीमांसा और फिर उससे आचरण की दिशा-निर्धारण के प्रयत्न गीता में अनेक स्थलों पर देखे जा सकते हैं। गीता का आचारदर्शन उसके तत्त्वदर्शन पर खड़ा है। इस प्रकार, जहाँ जैन और बौद्ध-दर्शन आचारदर्शन के आधार पर तत्त्वमीमांसा को फलित करते हैं, वहाँ गीता तत्त्वमीमांसा के आधार परआचार के नियमों को प्रतिपादित करती है। यहाँ गीता जैन और बौद्ध-परम्परा से भिन्न है। यहाँ उसका दृष्टिकोण पाश्चात्यविचारक स्पिनोजाके अधिक निकट है। गीता में प्रस्तुत ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग, सभी पर उसी तत्त्वमीमांसा का स्पष्ट प्रभाव है। वे उसके तत्त्वदर्शन या ईश्वर (परमसत्ता) के स्वरूप के आधार पर निकाले गए नैतिक-निष्कर्ष हैं। श्री संगमलाल पाण्डे स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करते हैं कि गीता का नीतिशास्त्र तत्त्वज्ञान या तत्त्वदर्शन पर आधारित है। इतना ही नहीं, इस सन्दर्भ में आलोचकों को उत्तर देते हुए वे अधिक बल के साथ यह लिखते हैं कि हम गीता की यह एक बड़ी देन मानते हैं कि इसके अनुसार नीतिशास्त्र को तत्त्वज्ञानमूलक होना चाहिए। इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन यह निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं कि तत्त्वदर्शन और आचारदर्शन में अपरिहार्य सम्बन्ध है। फिर भी, जहाँ जैन और बौद्ध-परम्पराएं तात्त्विक-समस्याओं को नैतिक-दृष्टि से हल करने का प्रयत्न करती हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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