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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
के विरोध में है, जो नैतिक उत्तरदायित्व पर बल नहीं देते। प्रो. हरियन्ना भी इसी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं। वे लिखते हैं, 'सच्ची बात यह है कि जैन-धर्म का मुख्य लक्ष्य आत्मा को पूर्ण बनाना है, न कि विश्व की व्याख्या करना। जैन-दर्शन के सम्बन्ध में श्री जे.एल.जैनी का कथन है कि उसका मूलमन्त्र है, ज्ञान के लिए जीवन नहीं, बल्कि जीवन के लिए ज्ञान है। जैन-तत्त्वमीमांसा में प्रमुख रूप से यही ध्यान रखा गया है कि वह उसके नैतिक-दर्शन को परिपुष्ट करे। जैन-दर्शन ने अपनी तत्त्वमीमांसा में नैतिक-पक्ष को ही उभारा है। सर्वदर्शनसंग्रह में इसे बड़े ही सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया गया है- आस्रव संसार (दुःख) का हेतु है और संवर मुक्ति का हेतु है। यही मात्र आर्हत्-दृष्टि का सार है, शेष सभी इसी का विस्तारमात्र है। बौद्ध-दृष्टिकोण
बुद्ध न केवल तत्त्वमीमांसा और आचारदर्शन में अपरिहार्य सम्बन्ध स्वीकार करते हैं, वरन् ऐसी तत्त्वमीमांसा को, जो नैतिक-जीवन की समस्याओं से सम्बन्धित नहीं है, अनावश्यक भी मानते हैं। बुद्ध की दृष्टि में ऐसा समस्त तत्त्व-विवाद, जो ब्रह्मचर्यवास (नैतिक-जीवन) के लिए नहीं है, जो नैतिक-जीवन की समस्याओं का समाधान नहीं देता, वरन् उन्हें उलझा देता है, कोई मूल्य नहीं रखता। प्रो. व्हाइटहेडका बौद्ध-धर्म के बारे में यह कहनाध्यान देने योग्य है कि वह इतिहास में अनुप्रयुक्त तत्त्वमीमांसा का सबसे महान् दृष्टान्त है। प्रो. हरियन्ना भी लिखते हैं कि बुद्ध के उपदेश में हमें शुद्ध तत्त्वमीमांसा का कोई सिद्धान्त नहीं मिलेगा। वह सैद्धान्तिक-तत्त्वमीमांसा के विरुद्धथे। बुद्ध के द्वारा तत्त्वमीमांसा की निरर्थकता के सम्बन्ध में मालुंक्यपुत्त को दिया गया उपदेश प्रसिद्ध है। वे कहते हैं, 'हे मालुंक्यपुत्त! यदि कोई मनुष्य अपने शरीर में बाण का विषैलाशल्य घुस जाने से छटपटाता हो, तो आप्तमित्र शल्य-क्रिया करने वाले वैद्य को बुला लाएंगे, परन्तु यदि वह रोगी उससे कहे कि मैं इस शल्य को तब तक हाथ नहीं लगाने दूंगा, जब तक कि मुझे प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता कि यह तीर किसने मारा? वह मारने वाला ब्राह्मणथा या क्षत्रिय? वैश्यथा याशूद्र? कालाथा या गोरा ? उसका धनुष किस प्रकार का था ? धनुष की रस्सी किस पदार्थ की बनी हुई थी? आदि, तो हे मालुंक्यपुत्त! उस परिस्थिति में वह मनुष्य इन बातों को जाने बिना ही मर जाएगा। इसी प्रकार, जो कोई इस बात पर अड़ा रहेगा कि जगत् शाश्वत है या अशाश्वत, आदि बातों का स्पष्टीकरण हुए बिना मैं ब्रह्मचर्य का आचरण नहीं करूँगा, तो वह इन बातों को जाने बिना ही मर जाएगा।
हे मालुंक्यपुत्त ! जगत् शाश्वत है या अशाश्वत, ऐसा विश्वास हो, तो भी उससे धार्मिक-आचरण में सहायता मिलेगी, ऐसी बात नहीं है। यदि ऐसा विश्वास हो कि जगत् शाश्वत है, तो भी जरा, मरण, शोक, परिदेव आदि से मुक्ति नहीं होती। इसी प्रकार, जगत्
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