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________________ - 20 पूर्ण एवं अपूर्ण, किसी प्रकार के नित्य तत्त्वों के न मानने के कारण बौद्ध तथा नित्य के साथ अनित्य कोभीस्थान देने के कारण जैन इस स्थिति में हैं कि वे यथा-सम्भव कर्म की स्वतन्त्र व्याख्या कर सकें। यही कारण है कि इन धाराओं में एतत्-सम्बन्धी विपुल साहित्य का निर्माण हुआ, जो वैदिकों में सम्भव नहीं हो सकता था। व्यक्तित्व के निर्माण में यदि सामाजिक उपादान कारण नहीं हैं याआवश्यक मात्रा से कम हैं, तो नित्यवादएवंपरलोकवाद के प्रभाव में व्यक्ति क्यों समाजनिरपेक्ष एवं उससे स्वतन्त्र नहीं होताजाएगा? इसदार्शनिक स्थिति में भी नित्यवादियों द्वारा विधि-निषेधसे अतीत आत्मवेत्ता महापुरुष के द्वारा लोकसंग्रह या लोककल्याण का आदर्श प्रस्तुत कराया जाता है, किन्तु वह उनकी व्यक्तिगत श्रेष्ठता अथवा व्यक्तिगत मौजयालीलासे अधिक नहीं मानाजासकता। वास्तव में उस निष्प्रयोजन व्यक्ति को प्रयोजन देना तार्किक नहींरह जाता। बौद्धों के बोधिसत्त्व आदर्श में अन्यों से जो कुछ भिन्नता दिखाई पड़ती है, उसके पीछे बौद्धों की सम्पूर्णत: अनित्यवादी परिवर्तनशील कार्यकारण की व्याख्या है, किन्तु वहाँभीकुछ विश्वासों के कारणपरिवर्तनवादी कार्यकारणसिद्धान्त के बावजूद उस आधार पर नीति की अपेक्षित व्याख्या नहीं की जा सकी है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न है भारतीय आदर्शों का, जो सम्पूर्ण जीवन को प्रयोजनवत्ता प्रदान करते हैं। उसमें श्रेष्ठतम है- निर्वाण या मोक्ष। संक्षेप में, निर्वाण प्रापंचिक द्वन्द्वों एवं दुःखों से विमुचित है। इसका घनिष्ठ सम्बन्ध व्यक्ति के साथ है, जोमहत्वपूर्ण है; किन्तु सब कुछ नहीं है। इसका निर्णय लेना होगा कि मोक्ष की प्रचलित अवधारणा कितनी सामाजिक है। जितनी मात्रा में वह सामाजिक होगा, उतनी मात्रा में ही व्यवहार को नैतिक मूल्य प्रदान करने में समर्थ होगा। यदि मोक्ष समाज-निरपेक्ष है, तो उसकास्तर नितान्त भित्र होगा। इस स्थिति में स्वयं चाहे वह उत्कृष्ट एवं महत्वपूर्ण क्यों न हो, किन्तु वह नैतिकता की समस्याओं से व्यक्ति में उदासीनता लाएगा। इसी परिप्रेक्ष्य में भारतीय दर्शनों पर पलायनवादी होने का आक्षेप किया जाता है। यह आक्षेप निर्मूल नहीं है, अत: उपेक्षणीय भी नहीं है। कम से कम बौद्ध और जैन-दर्शनों की मान्यताओं के बीच नवीन दृष्टि से नीति सम्बन्धी अध्ययन करने कीअधिक सम्भावना है, आवश्यकता है उस दिशा में चिन्तन की। इसी अर्थ में डॉ. जैन का ग्रन्थ दिशा-निर्देशक है। जगन्नाथ उपाध्याय भूतपूर्व श्रमण विद्या संकायाध्यक्ष सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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