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मान्यताएँ ही हैं, जिनकी समाज में श्रेष्ठता स्वीकार की गई है। यह सब परिवर्तनशील परिस्थितियों और अपेक्षाओं में उत्पन्न होते हैं और उन्हीं के द्वारा अच्छे या बुरे निर्धारित भी होते हैं। नैतिक और सामाजिक मूल्यों की तात्त्विकता का अर्थ मात्र इतना ही है कि वह छोटे-छोटे स्वार्थों से प्रेरित एवं तात्कालिक नहीं है। नित्यवाद के साथ नैतिक प्रश्नों को जोड़ने का एक दुष्परिणाम यह भी है कि एक स्थिति में पापी एवं दुराचारी भी नैतिक हो जाता है, यदि वह ईश्वर का अनन्य भक्त है, या यह ज्ञात हो कि व्यक्ति - आत्मा अपने प्रयासों से परमात्मा में विलीन होता है। इन सबके बावजूद नित्यवादी अवधारणा में भी यम, नियम, आत्मौपम्य, करुणा, सेवा, त्याग आदि गुणों को महत्व दिया गया है और उसके पक्ष में विपुल शास्त्रों की रचना भी की गई है, किन्तु इन्हें परम पुरुषार्थ या परमार्थ स्वीकार नहीं किया गया है। इन गुणों को सामान्य धर्म या नीति की कोटि में रखा जाता है। वास्तव में इन • गुणों का ऐहिकता से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। भारतीय सन्दर्भ में उन्हें कथंचित् आध्यात्मिकता से भी जोड़ा गया है और उसे मूल्य प्रदान किया गया है, किन्तु ऐसा करने में इसकी पूरी सावधानी रखनी होगी कि नीति कहीं अध्यात्म में डूब न जाए और अपने स्वयं का महत्व न खो दे। इसके लिए नीति के सन्दर्भ में अध्यात्म की चरितार्थता ऐहिकता के क्षेत्र में मानी जानी चाहिए। यदि अध्यात्म का ऐहिकता - निरपेक्ष स्वतन्त्र अस्तित्व है, तो विवेकपूर्वक उसे नीति और कर्म से पृथक् रखना होगा।
कर्मवाद भी एक दूसरी मान्यता है, जो नित्यवादी धारणाओं से प्रभावित है, यद्यपि उसकी निर्बाध व्याख्या नित्यवाद में सम्भव नहीं होती । नित्यवाद के विरुद्ध कर्मवाद नीतिनिर्धारक मान्यता है, जिसमें आत्मा और ईश्वर न मानने पर भी बौद्ध कर्मवादी हैं । परलोकवाद को स्वीकार करने के कारण नीति की ऐहिकतावादी व्याख्या कर सकना बौद्ध के लिए कठिन है। कर्म एवं कर्मफल की ऐहिकतावादी व्याख्या न कर सकने के कारण ही कर्म परलोकवाद से मिलकर रहस्य एवं विश्वास बन गया। वह मनुष्य के लिए भार बन चुका है। यही कारण है कि अध्यात्मवादियों के लिए कर्म बन्धन बन गया, क्योंकि उसका समाधान कठिन था, फलत: उससे निवृत्त हो जाने को ही पुरुषार्थ माना जाने लगा ।
कर्मवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध कार्यकारणभाव से है। कार्यकारण के बीच जितनी मात्रा में स्थिर एवं नित्य तत्त्व सन्निविष्ट किए जाएंगे, उतनी मात्रा में ही कर्मवाद का नीति निर्धारक रूप कम होता जाएगा। इस प्रसंग में व्यक्ति और समाज के बीच के सम्बन्धों का यदि विश्लेषण किया जाए, तो ज्ञात होगा कि आत्मा, ईश्वर और परलोक आदि की मान्यताएँ किस प्रकार उन दोनों के बीच तार्किक आधार पर स्वतन्त्र सम्बन्ध नहीं बनने देते ।
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