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________________ -18 मान्यता है, वह भी कैसे सामाजिक होगी। स्वधर्म के रूप में वर्णधर्म को क्या लोकहित के अर्थ में सामाजिक कहा जा सकता है ? इस पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए। इस ग्रन्थ में विचारार्थ जितने विषयों का समावेश किया गया है, उसका प्रस्थान बिन्दु है-जैन धर्म-दर्शन। उसे मुख्यता प्रदान कर बौद्ध मान्यताओं और गीता के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। इस स्थिति में प्रस्तावित विचारों को जैनदृष्टि की पूर्व मान्यताओं ने प्रभावित किया है। इस ग्रन्थ की यह एक स्वाभाविक सीमा है, किन्तु इन प्रतिबद्धताओं के बीच कुछ ऐसे प्रश्न उठते हैं, जिनकी ओर विद्वानों का ध्यान जाना चाहिए। प्राचीन भारतीय दर्शनों की प्रतिबद्धता है-नित्यवाद। बौद्धदर्शन एक प्रकार से इसका अपवाद है। नित्यवादी दृष्टि का एक भरा-पूरा परिवार होता है, जिसमें आत्मवादी एवं ईश्वरवादी मान्यताएँ भी होती हैं। इस मान्यता के अनुसार नित्य आत्मा ही मनुष्य का अपना स्वभाव है। राग-द्वेष आदि कषायों के कारण वह स्वभावच्युत या केन्द्रच्युत है। समत्व आत्मा का स्वरूप है। इस सत्य का ज्ञान न होने से ही वह बाह्य विषमताओं से प्रभावित होकर अनेकानेक द्वन्द्वों के बीच उलझारहता है। नीति की चरितार्थता इसमें है कि वह द्वन्द्वों, विषमताओं से जनित संघर्षों से बचाकर व्यक्ति को आत्मसमता से यथावत् प्रतिष्ठित कर दे। इस पूरी मान्यता की पृष्ठभूमि में यदि यह प्रश्न किया जाए कि नैतिक मूल्यों का उत्स क्या है ? तो इसका सहज उत्तर होगा- समत्व प्राप्त करना, अर्थात् आत्मा की शुद्ध दशा को प्राप्त कर लेना, इसीलिए वे व्यवहार नैतिक कहे जाएंगे, जो आत्मसमताप्राप्त करा दें। द्वन्द्वों के जगत् में रहने वाला व्यक्ति क्यों आत्मसमता की प्राप्ति के लिए प्रेरित होगा? इस प्रश्न का आत्म-समतावादी उत्तर है कि व्यक्ति का मूलभूत स्वभाव यत: आत्मसमता है, अत: अपने स्वभावगत साम्यावस्था की दशा में जाने के लिए वह चेष्टा करता है। यदि यह प्रश्न किया जाए कि आपके उपर्युक्त कथन की प्रामाणिकता का आधार क्या है ? तो उत्तर होगा-सम्याज्ञान । ज्ञान के सम्यक्त्व के निर्धारण का क्या आधार है ? सत्य। सत्य क्या है? आत्मसमता। आत्मा ध्रुव सत्य है, जो न साध्य है और न साधन । प्रश्नोत्तर का यह चक्र नित्यवाद के विश्वास-बिन्दु के चारों ओर घूमता रहता है। इन पूरी प्रतिज्ञाओं का परीक्षण या प्रामाण्य सामाजिक एवं व्यावहारिक भूमि पर सम्भव नहीं है। स्पष्ट है कि नीतिगत प्रश्न सामाजिक एवं धार्मिक है, जिसे व्यवहार एवं तर्क की कोटि में आना चाहिए, इसलिए विषमताओं और द्वन्द्वों के बीच उसकी वरणीयता एवं वरीयताका निर्धारण करना होता है। उसका उत्ससमाज है और उसका आदर्श भी सामाजिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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