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भी किया गया है। भारतीय नीति एवं आचार- दर्शन के क्षेत्र में अध्ययन करने वाले सभी लोगों के समक्ष यह एक बड़ी चुनौती है, जिसका समाधान पक्षपात और आवेश से नहीं, अपितु तथ्य और विवेक से ही सम्भव होगा। डॉ. जैन ने इस प्रश्न को महत्व दिया है और उसके समाधान के लिए अपरिचित एवं अल्प परिचित तथ्यों को प्रस्तुत करने की सफल चेष्टा की है। इसके लिए उन्होंने प्रवृत्ति एवं निवृत्ति-धाराओं के क्षेत्र और उनकी सीमाओं को रेखांकित किया है। उनके बीच की अविरोधी तात्त्विक मान्यताओं को भी उजागर किया है। भारतीय धर्मों में सामाजिकता और सामाजिक नैतिकता का उत्स क्या है ? वह कौन - सा केन्द्रीय तत्त्व है, जिस बिन्दु के चतुर्दिक् नीति या नैतिक व्यवहार आत्मलाभ करते हैं ? इन प्रश्नों के निर्णय के लिए डॉ. सागरमल जैन ने सामाजिकता और सामाजिक चेतना का विशद विश्लेषण किया है। इसी दिशा में उन्होंने अहिंसा की केन्द्रियता को, उसके निषेधात्मक और विधेयात्मक - दोनों रूपों को स्पष्ट किया है।
भारतीय चिन्तन की विशिष्टता को प्रकट करने के लिए सामाजिक चेतना का विश्लेषण करते हुए डॉ. जैन ने 'अति सामाजिकता' के स्तर की चर्चा की है। अवश्य ही सामाजिकता का अर्थ असामाजिकता नहीं है। यह मात्र वैयक्तिकता और सामाजिकता के द्वन्द्व से उबारने के लिए, उनसे अतीत तथा उनको अपने में आत्मसात् करने वाला, उनसे भी उत्कृष्ट अध्यात्मप्रधान नैतिक स्तर बताने मात्र के लिए अंगीकृत है। प्रायः सभी भारतीय विचारधाराओं में इस उच्च स्तर की ओर अनेकधा संकेत किया गया है, 'को विधिः को निषेध:' । सभी भारतीय चिन्तनधाराएँ व्यक्तिवादी हैं, यह भी एक प्रचलित धारणा है। डॉ. जैन ने इसके निराकरण के लिए वैयक्तिकता और सामाजिकता को परिभाषित किया है और उन्हें एक ही व्यक्तित्व के दो पक्ष बताए हैं। उनका उद्गम राग और द्वेष की वृत्तियों की क्रिया-प्रतिक्रिया के बीच माना है। इसी आधार पर वह यह निष्कर्ष फलित करते हैं कि वीतराग एवं वीतद्वेष अति- सामाजिक होता है, असामाजिक नहीं। सामाजिकता और वैयक्तिकता के विरोधपरिहार के लिए यह आवश्यक था कि स्वहित एवं लोकहित तथा स्वधर्म और परधर्म को खुलकर व्याख्यायित किया जाए। लेखक ने भारतीय धर्मों की तीनों शाखाओं में स्वहित और लोकहित का समन्वय दिखाया है। हित की अवधारणा का धर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध है, विशेषकर प्राचीन धर्म-संस्कृति वाले देशों में, जैसा कि भारतवर्ष है। यदि स्वधर्म वैयक्तिक है, तो वह लोकहित के लिए कितनी मात्रा में प्रेरणाप्रद होगा ?
प्रकार, साधना के स्तरों के आधार पर भी विचार किया जाए, जैसा डॉ. जैन ने किया है, तब भी वह व्यक्ति के क्षेत्र से बाहर नहीं जाता। गीता में परधर्म की भयावहता की जो
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