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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त महत्वपूर्ण परिभाषा दी है। उनके अनुसार, धर्म वह है, जो वस्तु का निज स्वभाव है ( वत्थुसहावो धम्मो ) । व्यक्ति का धर्म या साध्य वही हो सकता है, जो उसकी चेतना या आत्मा का निज स्वभाव है और जो हमारा निज स्वभाव है, उसी को पा लेना ही मुक्ति है, अत: उस स्वभाव-दशा की ओर ले जाने वाला आचरण ही सदाचरण कहा जा सकता है। पुनः, प्रश्न यह उठता है कि हमारा स्वभाव क्या है ? भगवतीसूत्र में गौतम ने भगवान् महावीर के सम्मुख यह प्रश्न उपस्थित किया था। वे पूछते हैं, 'भगवान्, आत्मा का निज स्वरूप क्या है और आत्मा का साध्य क्या है ?' महावीर ने उनके सब प्रश्नों का जो उत्तर दिया था, वही आज भी समस्त जैन - आचारदर्शन में किसी कर्म के नैतिक मूल्यांकन का आधार है। महावीर ने कहा था, 'आत्मा समत्व - स्वरूप है और उस समत्व-स्वरूप को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है।' दूसरे शब्दों में, समता स्वभाव है और विषमता विभाव है और जो विभाव से स्वभाव की दिशा में, अथवा विषमता से समता की दिशा में ले जाता है, वही धर्म है, नैतिकता है, सदाचार है, अर्थात् विषमता से समता की ओर ले जाने वाला आचरण ही सदाचार है। संक्षेप में, जैन-धर्म के अनुसार सदाचार या दुराचार के मानदण्ड समता एवं विषमता अथवा स्वभाव एवं विभाव के तत्त्व हैं। स्वभाव से फलित होने वाला आचरण सदाचार है और विभाव या परभाव से फलित होने वाला आचरण दुराचार है । यहाँ हमें समता के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा। यद्यपि द्रव्यार्थिक- नय की दृष्टि से समता का अर्थ परभाव से हटकर शुद्ध स्वभाव - दशा में स्थित हो जाना है, किन्तु अपनी विविध अभिव्यक्तियों की दृष्टि से विभिन्न स्थितियों में इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से समता या स्वभाव का अर्थ राग-द्वेष से ऊपर उठकर वीतरागता या अनासक्त भाव की उपलब्धि है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक-समत्व का अर्थ हैसमस्त इच्छाओं, आकांक्षाओं से रहित मन की शान्त एवं विक्षोभ (तनाव) रहित अवस्था । यही समत्व जब हमारे सामुदायिक या सामाजिक - जीवन में फलित होता है, तो इसे हम अहिंसा के नाम से अभिहित करते हैं। वैचारिक दृष्टि से इसे हम अनाग्रह या अनेकान्त - दृष्टि कहते हैं। जब हम इसी समत्व के आर्थिक पक्ष से विचार करते हैं, तो अपरिग्रह के नाम से जानते हैं, साम्यवाद एवं न्यासी - सिद्धान्त इसी अपरिग्रह-वृत्ति की आधुनिक अभिव्यक्तियाँ हैं। यह समत्व ही मानसिक क्षेत्र में अनासक्ति या वीतरागता के रूप में, सामाजिक क्षेत्र में अहिंसा के रूप में, वैचारिकता के क्षेत्र में अनाग्रह या अनेकान्त के रूप में और आर्थिक क्षेत्र अपरिग्रह के रूप में अभिव्यक्त होता है, अतः समत्व को निर्विवाद रूप से सदाचार का मानदण्ड स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु 'समत्व' को सदाचार का मानदण्ड स्वीकार Jain Education International 211 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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