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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
वैयक्तिक शुभ की दृष्टि से प्रस्तुत नैतिक-प्रतिमान सामाजिक-शुभ की दृष्टि से प्रस्तुत नैतिक-प्रतिमान से भिन्न होगा। इसी प्रकार, वासना पर आधारित नैतिक-प्रतिमान विवेक पर आधारित नैतिक-प्रतिमान से अलग होगा। राष्ट्रवाद से प्रभावित व्यक्ति की नैतिक-कसौटी अन्तर्राष्ट्रीयता के समर्थक व्यक्ति की नैतिक-कसौटी से पृथक् होगी। पूँजीवाद और साम्यवाद के नैतिक-मानदण्ड भिन्न-भिन्न हीरहेंगे; अत: हमें नैतिक-मानदण्डों कीअनेकताको स्वीकार करते हुए यह मानना होगा कि प्रत्येक नैतिक-मानदण्ड अपने उस दृष्टिकोण के आधार पर ही सत्य है।
कुछ लोग यहाँ किसी परम शुभ की अवधारणा के आधार पर किसी एक नैतिकप्रतिमान का दावा कर सकते हैं; किन्तु वह परम शुभ या तो इन विभिन्न शुभों या हितों को अपने में अन्तर्निहित करेगा, या इनसे पृथक् होगा; यदि वह इन भिन्न-भिन्न मानवीय-शुभों को अपने में अन्तर्निहित करेगा, तो वह भी नैतिक-प्रतिमानों की अनेकता को स्वीकार करेगा और यदि वह इन मानवीय शुभों से पृथक् होगा, तो नीतिशास्त्र के लिए व्यर्थ ही होगा, क्योंकि नीतिशास्त्र का पूरा सन्दर्भ मानव-सन्दर्भ है। नैतिक-प्रतिमान का प्रश्न तभी तक महत्वपूर्ण है, जब तक मनुष्य मनुष्य है, यदि मनुष्य मनुष्य के स्तर से ऊपर उठकर देवत्व को प्राप्त कर लेता है, या मनुष्य के स्तर से नीचे उतरकर पशु बन जाता है, तो उसके लिए नैतिकता या अनैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है और ऐसे यथार्थ मनुष्य के लिए नैतिकता के प्रतिमान अनेक ही होंगे। नैतिक-प्रतिमानों के सन्दर्भ में यही अनेकान्तदृष्टि सम्यग्दृष्टि होगी। इसे हम नैतिक-प्रतिमानों का अनेकान्तवाद कह सकते हैं। 17. जैन-दर्शन में सदाचार का मानदण्ड
फिर भी मूल प्रश्न यह है कि जैन-दर्शन का चरम साध्य क्या है ? जैन-दर्शन अपने चरम साध्य के बारे में स्पष्ट है। उसके अनुसार, व्यक्ति का चरम साध्य मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति है, वह यह मानता है कि जो आचरण निर्वाण या मोक्ष की दिशा में जाता है, वही सदाचार की कोटि में आता है। दूसरे शब्दों में, जो आचरण मुक्ति का कारण है, वह सदाचार है और जो आचरण बन्धन का कारण है, वह दुराचार है, किन्तु यहाँ पर हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि उसका मोक्ष अथवा निर्वाण से क्या तात्पर्य है। जैन-धर्म के अनुसार निर्वाण या मोक्ष स्वभाव-दशा एवं आत्मपूर्णता की प्राप्ति है। वस्तुत:, हमारा जो निजस्वरूप है, उसे प्राप्त कर लेना, अथवा हमारी बीजरूप क्षमताओं को विकसित कर आत्मपूर्णता की प्राप्ति ही मोक्ष है। उसकी पारस्परिक-शब्दावली में परभाव से हटकर स्वभाव में स्थित हो जाना ही मोक्ष है। यही कारण था कि जैन-दार्शनिकों ने धर्म की एक विलक्षण एवं
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