________________
212
जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
करते हुए भी हमें उसके विविध पहलुओं पर विचार तो करना ही होगा, क्योंकि सदाचार का सम्बन्ध अपने साध्य के साथ-साथ उन साधनों से भी होता है, जिसके द्वारा हम उसे पाना चाहते हैं और जिस रूप में वह हमारे व्यवहार में और सामुदायिक-जीवन में प्रकट होता है।
जहाँ तकव्यक्ति के चैत्तसिक याआन्तरिक-समत्व का प्रश्न है, हम उसे वीतरागमनोदशा या अनासक्त चित्तवृति की साधना मान सकते हैं। फिर भी, समत्व की साधना का यह रूप हमारे वैयक्तिक एवं आन्तरिक-जीवन से अधिक सम्बन्धित है। यह व्यक्ति की मनोदशा का परिचायक है। यह ठीक है कि व्यक्ति की मनोदशा का प्रभाव उसके आचरण परभी होता है और हम व्यक्ति के आचरण का मूल्यांकन करते समय उसके इस आन्तरिकपक्ष पर विचार भी करते हैं, किन्तु फिर भी यह सदाचार या दुराचार का प्रश्न हमारे व्यवहार के बाह्य-पक्ष पर, अथवा उस आचरण का दूसरों पर क्या प्रभाव या परिणाम होता है, इस बात पर अधिक होता है। सदाचार या दुराचार का प्रश्न केवल कर्ता के आन्तरिकमनोभावों या वैयक्तिक-जीवन से सम्बन्धित नहीं है, वह आचरण के बाह्य-प्रारूप तथा हमारे सामाजिक-जीवन में इसके आचरण-परिणामों पर विचार करता है। यहाँ हमें सदाचार
और दुराचार की व्याख्या के लिए कोई ऐसी कटौती खोजनी होगी, जो आचार के बाह्यपक्ष, अथवा हमारे व्यवहार के सामाजिक-पक्ष को भी अपने में समेट सके। सामान्यतया, भारतीय-चिन्तन में इस सम्बन्ध में एक सर्वमान्य दृष्टिकोण यह है कि परोपकार ही पुण्य है और परपीड़ा ही पाप है। तुलसीदास ने इसे निम्न शब्दों में प्रकट किया है
‘परहित सरिसधरम नहि भाई, पर-पीड़ासमनहि अधमाई।' अर्थात्, वह आचरण, जो दूसरों के लिए कल्याणकारी या हितकारी है, सदाचार है, पुण्य है और जो दूसरों के लिए अकल्याणकारी है, अहितकर है, वही पाप है, दुराचार है। जैनधर्म में सदाचार के एक ऐसे ही मानदण्ड की चर्चा हमें आचारांगसूत्र में उपलब्ध होती है। वहाँ कहा गया है, 'भूतकाल के जितने अर्हत हो गए हैं, वर्तमान-काल में जितने अर्हत हैं
और भविष्य में जितने अर्हत् होंगे, वे सभी यह उपदेश करते हैं कि सभी प्राणों, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसीका हनन करना चाहिए, यहीशुद्ध, नित्य और शाश्वतधर्म है, किन्तु मात्र दूसरे की हिंसा नहीं करने के अहिंसा के निषेधात्मक-पक्ष को, या दूसरों के हित-साधन को ही सदाचार की कसौटी नहीं माना जा सकता है। ऐसी अवस्थाएँ सम्भव हैं कि जब मेरे असत्य सम्भाषण एवं अनैतिक-आचरण के द्वारा दूसरों का हितसाधन होता हो, अथवा कम से कम किसी का अहित न होता हो; किन्तु क्या ऐसे आचरण को सदाचार कहने का साहस कर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org