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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
पशुबलि के सम्बन्ध में मुस्लिम एवं जैन-परिवारों में संस्कारित व्यक्तियों के अन्तरात्मा के निर्णय एक समान नहीं होंगे। अन्तरात्मा कोई सरल तथ्य नहीं है, जैसा कि अन्तःप्रज्ञावाद मानता है, अपितु वह विवेकात्मक-चेतना के विकास, पारिवारिक एवं सामाजिक-संस्कारों तथा परिवेशजन्य तथ्यों द्वारा निर्मित एक जटिलरचना है और ये तीनों बातें हमारी अन्तरात्मा को और उसके निर्णयों को प्रभावित करती हैं।
इसी प्रकार, साध्यवादी-सिद्धान्त भी किसी सार्वभौम नैतिक-मानदण्ड का दावा नहीं कर सके हैं। सर्वप्रथम तो, उनमें इस प्रश्न को लेकर ही मतभेद हैं कि मानव-जीवन का साध्य क्या हो सकता है ? मानवतावादी-विचारक, जो मानवीय-गुण के विकास को ही नैतिकता की कसौटी मानते हैं, इस बात पर परस्पर सहमत नहीं हैं कि आत्मचेतना, विवेकशीलता और संयम में किसे सर्वोच्च मानवीय-गुण माना जाए। समकालीन मानवतावादियों में जहाँ वारनर फिटे आत्मचेतनता को प्रमुख मानते हैं, वहाँ सी.बी. गर्नेट
और इस्राइल लेविन विवेकशीलता को तथा इरविंग बबिट आत्मसंयम को प्रमुख नैतिकगुण मानते हैं। साध्यवादी-परम्परा के सामने यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण रहा है कि मानवीयचेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक-पक्ष में से किसकी सन्तुष्टि को सर्वाधिक महत्व दिया जाए। इस सन्दर्भ में सुखवाद और बुद्धिवाद का विवाद तो सुप्रसिद्ध ही है। सुखवाद जहाँ मनुष्य के अनुभूत्यात्मक (वासनात्मक) पक्षकी सन्तुष्टि को मानव-जीवन कासाध्य घोषित करता है, वहाँ बुद्धिवादभावना-निरपेक्ष बुद्धि के आदेशों के परिपालन में ही नैतिक-कर्त्तव्य की पूर्णता देखता है। इस प्रकार, सुखवाद और बुद्धिवाद के नैतिकप्रतिमान एक-दूसरे से भिन्न हैं। इसका मूल कारण दोनों की मूल्यदृष्टि की भिन्नता है; एक भोगवाद का समर्थक है, तो दूसरा वैराग्यवाद का। मात्र यही नहीं, सुखवादी-विचारक भी 'कौन-सा सुख साध्य है?' इस प्रश्न पर एकमत नहीं हैं। कोई वैयक्तिक-सुख को साध्य बताता है, तो कोई समष्टि-सुख को अथवा अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख को। पुन: यह सुख, ऐन्द्रिक-सुख हो या मानसिक सुख हो, अथवा आध्यात्मिक-आनन्द हो, इस प्रश्न पर भी मतभेद हैं। वैराग्यवादी परम्पराएँ भी सुखकोसाध्य मानती हैं, किन्तु वे जिससुख की बात करती हैं, वह सुख वस्तुगत नहीं है, वह इच्छा, आसक्ति या तृष्णा के समाप्त होने पर चेतना की निर्द्वन्द्व, तनावरहित, समाधिपूर्ण अवस्था है। इस प्रकार, सुख को साध्य मानने के प्रश्न पर उनमें आम सहमति होते हुए भी उनके नैतिक-प्रतिमान भिन्न-भिन्न ही होंगे, क्योंकि सुख की प्रकृतियाँ भिन्न-भिन्न हैं।
यद्यपि पूर्णतावाद आत्मोपलब्धि को साध्य मानकर सुखवाद और बुद्धिवाद के
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