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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त यदि हम नैतिक मूल्यांकन का आधार नैतिक-आवेगों (Moral sentiments) को स्वीकार करते हैं, तो नैतिक मूल्यांकन में एकरूपता सम्भव नहीं होगी, क्योंकि व्यक्तिनिष्ठ नैतिक-आवेगों में विविधता स्वाभाविक है। नैतिक-आवेगों की इस विविधता को समकालीन विचारक एडवर्ड वैस्टरमार्क ने स्वयं स्वीकार किया है। उनके अनुसार, इस विविधता का कारण व्यक्तियों के परिवेश, धर्म और विश्वासों में पाई जाने वाली भिन्नता है। विचार कर्म नैतिक-औचित्य एवं अनौचित्य के निर्धारण के लिए विधानवादीप्रतिमान अपनाते हैं और जाति, समाज, राज्य या धर्म द्वारा प्रस्तुत विधि-निषेध ( यह करो और यह मत करो) की नियमावलियों को नैतिक- प्रतिमान स्वीकार करते हैं, उनमें भी प्रथम प्रश्न को लेकर मतभेद है कि जाति (समाज), राज्य शासन और धर्मग्रन्थ द्वारा प्रस्तुत अनेक नियमावलियों में से किसे स्वीकार किया जाए ? पुनः, प्रत्येक जाति, राज्य और धर्मग्रन्थ द्वारा प्रस्तुत ये नियमावलियाँ भी अलग-अलग हैं। इस प्रकार, बाह्य-विधानवाद नैतिक प्रतिमान का कोई एक सिद्धान्त प्रस्तुत कर पाने में असमर्थ है। समकालीन अनुमोदनात्मक-सिद्धान्त (Approbative theories) जो नैतिक- प्रतिमान को वैयक्तिक, रुचि-सापेक्ष अथवा सामाजिक एवं धार्मिक - अनुमोदन पर निर्भर मानते हैं, किसी एक सार्वभौम नैतिक- प्रतिमान का दावा करने में असमर्थ हैं। व्यक्तियों का रुचिवैविध्य और सामाजिक- आदर्शों में पाई जाने वाली भिन्नताएँ सुस्पष्ट ही हैं। धार्मिक-अनुशंसा भी अलग-अलग होती है, एक धर्म जिन कर्मों का अनुमोदन करता है और उन्हें नैतिक ठहराता है, दूसरा धर्म उन्हीं कर्मों को निषिद्ध और अनैतिक ठहराता है। वैदिक-धर्म और इस्लाम पशुबलिको वैध मानते हैं, वहीं जैन, वैष्णव और बौद्ध धर्म उसे अनैतिक और अवैध मानते हैं। निष्कर्ष यही है कि वे सभी सिद्धान्त किसी एक सार्वभौम नैतिक- प्रतिमान का दावा करने में असमर्थ हैं, जो नैतिकता की कसौटी, वैयक्तिक- रुचि, सामाजिक- अनुमोदन अथवा धर्मशास्त्र की अनुशंसा को मानते हैं। - अन्तः प्रज्ञावाद, अथवा सरल शब्दों में कहें, तो अन्तरात्मा के अनुमोदन का सिद्धान्त भी किसी एक नैतिक - प्रतिमान को दे पाने में असमर्थ है। यद्यपि यह कहा जाता है कि अन्तरात्मा के निर्णय सरल, सहज और अपरोक्ष होते हैं, फिर भी अनुभव यही बताता है कि अन्तरात्मा के निर्णयों में एकरूपता नहीं होती। प्रथम तो, स्वयं अन्त: प्रज्ञावादी ही इस सम्बन्ध में एकमत नहीं हैं कि इस अन्तः प्रज्ञा की प्रकृति क्या है, यह बौद्धिक है या भावनापरक । पुनः, यह मानना कि सभी की अन्तरात्मा एक-सी है, ठीक नहीं है; क्योंकि अन्तरात्मा की संरचना और उसके निर्णय भी व्यक्ति के संस्कारों पर आधारित होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only 205 www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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