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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
यद्यपि जैन आचारदर्शन में सापेक्ष दृष्टि से नैतिक-म - मानक सम्बन्धी सभी विचार स्वीकार कर लिए गए हैं, फिर भी उसकी दृष्टि में कर्म की शुद्धता इस पर आधारित है कि वह कर्म राग-द्वेष की वृत्तियों से कितना मुक्त है। उसके अनुसार, जो कर्म अनासक्त-भाव से सम्पादित होते हैं, वे ही आत्मपूर्णता की ओर ले जाते हैं। वीतरागावस्था या समभाव की उपलब्धि ही उसका एकमात्र नैतिक साध्य या परम मूल्य है । 16. नैतिक - प्रतिमानों का अनेकान्तवाद
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वस्तुतः, मनुष्यों की नीति - सम्बन्धी अवधारणाओं, मापदण्डों या प्रतिमानों की विविधता ही नैतिक निर्णयों की भिन्नता का कारण मानी जा सकती है। जब भी हम किसी आचरण का नैतिक मूल्यांकन करते हैं, तो हमारे सामने नीति सम्बन्धी कोई मापदण्ड, प्रतिमान या मानक (Moral standard) अवश्य होता है, जिसके आधार पर हम व्यक्ति चरित्र, आचरण अथवा कर्म का नैतिक मूल्यांकन (Moral valuation) करते हैं। विभिन्न देश, काल, समाज और संस्कृतियों में ये नैतिक मापदण्ड या प्रतिमान अलगअलग रहे हैं और समय-समय पर इनमें परिवर्तन होते रहे हैं। प्राचीन ग्रीक संस्कृति में जहाँ साहस और न्याय को नैतिकता का प्रतिमान माना जाता था, वहीं परवर्ती ईसाई संस्कृति में सहनशीलता और त्याग को नैतिकता का प्रतिमान माना जाने लगा। यह एक वास्तविकता है कि नैतिक प्रतिमान या नैतिकता के मापदण्ड अनेक रहे हैं तथा विभिन्न व्यक्ति और विभिन्न समाज अलग-अलग नैतिक- प्रतिमानों का उपयोग करते रहे हैं। मात्र यही नहीं, एक ही व्यक्ति अपने जीवन में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न नैतिक- प्रतिमानों का उपयोग करता है। नैतिक प्रतिमान के इस प्रश्न पर न केवल जनसाधारण में, अपितु नीतिवेत्ताओं में भी गहन मतभेद हैं।
नैतिक-प्रतिमानों (Moral standards) की इस विविधता और परिवर्तनशीलता लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं। क्या कोई ऐसा सार्वभौम नैतिक- प्रतिमान सम्भव है, जिसे सार्वलौकिक और सार्वकालिक मान्यता प्राप्त हो ? यद्यपि अनेक नीतिवेत्ताओं ने अपने नैतिक- प्रतिमान को सार्वलौकिक, सार्वकालीन एवं सार्वजनीन सिद्ध करने का दावा अवश्य किया है; किन्तु जब वे ही आपस में एकमत नहीं हैं, तो फिर उनके इस दावे को कैसे मान्य किया जा सकता है? नीतिशास्त्र के इतिहास की नियमवादी - परम्परा में कबीले के बाह्य-नियमों की अवधारणा से लेकर अन्तरात्मा के आदेश तक तथा साध्यवादी परम्परा स्वार्थमूलक सुखवाद से प्रारम्भ करके बुद्धिवाद, पूर्णतावाद और मूल्यवाद तक अनेक नैतिक- प्रतिमान प्रस्तुत किए गए हैं।
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