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________________ 200 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन उनमें एक मूल्यात्मक तारतम्य स्पष्ट हो जाता है, जिसमें सर्वोच्च स्थान मोक्ष का है, उसके बादधर्म का स्थान है। धर्म के बाद काम और सबसे अन्त में अर्थका स्थान आता है, किन्तु अर्थपुरुषार्थ जब लोकोपकार के लिए होता है, तब उसका स्थान कामपुरुषार्थ से ऊपर होता है। पाश्चात्य-विचारक अरबन ने मूल्य-निर्धारण के तीन नियम प्रस्तुत किए हैं- (1) साधनात्मक या परत:-मूल्यों की अपेक्षा साध्यात्मक या स्वत:-मूल्य उच्चतर हैं; (2) अस्थायी या अल्पकालिक-मूल्यों की अपेक्षा स्थायी एवं दीर्घकालिक-मूल्य उच्चतर हैं; (3) असृजक-मूल्यों की अपेक्षा सृजक-मूल्य उच्चतर हैं।144 यदिप्रथम नियम के आधार पर विचार करें, तो धन, सम्पत्ति, श्रम आदि आर्थिक मूल्य जैविक, सामाजिक और धार्मिक (काम और धर्म) मूल्यों की पूर्ति के साधनमात्र हैं, वे स्वत:साध्य नहीं हैं। भारतीय-चिन्तन में धन की तीन गतियाँ मानी गई हैं- (1) दान, (2) भोग और (3) नाश। वह दान के रूप में धर्मपुरुषार्थ का और भोग के रूप में कामपुरुषार्थ का साधन ही सिद्ध होता है। कामपुरुषार्थ सामान्य रूप में स्वत:साध्य प्रतीत होता है, लेकिन विचारपूर्वक देखने पर वह भी स्वत:साध्य नहीं कहा जा सकता। प्रथमतः, जैविकआवश्यकताओं की पूर्ति के रूप में जो भोग किए जाते हैं, वे स्वयंसाध्य नहीं, वरन् जीवनया शरीर-रक्षण के साधनमात्र हैं। इन सबका साध्य स्वास्थ्य एवं जीवन है। हम जीने के लिए खाते हैं, खाने के लिए जीते हैं। यदि हम कामपुरुषार्थ को कला, दाम्पत्य, रति या स्नेह के रूप में मानें, तो वह भी आनन्द का एक साधन ही ठहरता है। इस प्रकार, कामपुरुषार्थ का भी स्वत: मूल्य सिद्ध नहीं होता। उसका जो भी स्थान हो सकता है, वह मात्र उसके द्वारा व्यक्ति के आनन्द में की गई अभिवृद्धि पर निर्भर करता है। यदि अल्पकालिकता या स्थायित्व की दृष्टि से विचार करें, तो कामपुरुषार्थ मोक्ष एवं धर्म की अपेक्षाअल्पकालिक ही है। भारतीय विचारकों ने कामपुरुषार्थ को निम्न स्थान उसकी क्षणिकता के आधार पर ही दिया है। तीसरे, अपने फल या परिणाम के आधार पर भी काम-पुरुषार्थ निम्न स्थान पर ठहरता है, क्योंकि वह अपने पीछे दुष्पूर-तृष्णा को छोड़ जाता है। उसे उपलब्ध होने वाले आनन्द की तुलना खुजली खुजाने से की गई है, जिसकीफल-निष्पत्ति क्षणिक सुख के बाद तीव्र वेदना में होती है। धर्मपुरुषार्थ सामाजिक एवं धार्मिक-मूल्य के रूप में स्वतःसाध्य है, लेकिन वह भी मोक्ष का साधन माना गया है, जो सर्वोच्च मूल्य है। इस प्रकार, अरबन के उपर्युक्तमूल्यनिर्धारण के नियमों के आधार पर भी अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष-पुरुषार्थों का यही क्रम सिद्ध होता है, जो कि जैन और दूसरे भारतीय-आचारदर्शनों में स्वीकृत है, जिसमें अर्थ सबसे निम्न मूल्य है और मोक्ष सर्वोच्च मूल्य है। 14. मोक्ष सर्वोच्च मूल्य क्यों ? इस सम्बन्ध में ये तर्क दिए जा सकते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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