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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त 199 इसी प्रकार, जब हम साधनामार्ग पर सामाजिक-सन्दर्भ में विचार करते हैं, तो धर्म ही प्रधान प्रतीत होता है। धर्म ही सामाजिक-व्यवस्था का आधार है। धर्म के अभाव में सामाजिक-जीवन अस्तव्यस्त हो जाता है और अस्तव्यस्त सामाजिकजीवन में अर्थोत्पादन एवं आध्यात्मिक-साधना-दोनों ही सम्भव नहीं होते। भोगों की समरसता समाप्त हो जाती है। ___साध्य या आदर्श की दृष्टि से विचार करने पर मोक्ष ही प्रधान प्रतीत होता है, क्योंकि सारे प्रयास जिसके लिए हैं, वह तो आध्यात्मिक-पूर्णता की प्राप्ति ही है। संक्षेप में, साधनात्मक-दृष्टि से आर्थिक-मूल्य (अर्थ), जैविक-दृष्टि से मनोदैहिक-मूल्य (काम), सामाजिक-दृष्टि से नैतिक-मूल्य (धर्म) और साध्यात्मक-दृष्टि से आध्यात्मिक-मूल्य (मोक्ष) प्रमुख हैं। लेकिन, ये सभी मूल्य या पुरुषार्थ एक-दूसरे से स्वतन्त्र या निरपेक्ष होकर नहीं रह सकते। मोक्ष या आध्यात्मिक-मूल्यों की प्राप्ति के लिएधर्म आवश्यक है और धर्म-साधन के लिए शरीर आवश्यक है, शरीर के निर्वाह के लिए शारीरिक-आवश्यकताओं की पूर्ति (काम) आवश्यक है और उनकी पूर्ति के लिए साधन (अर्थ) जुटाना आवश्यक है। इस प्रकार, सभी परस्पर सापेक्ष हैं और सभी आवश्यक भी हैं। जैन-ग्रन्थ निशीथभाष्य में कहा गया है कि ज्ञानादि मोक्ष के साधन हैं और ज्ञानादि का साधन देह है और देह का साधन आहार है।143 इस प्रकार, चारों पुरुषार्थों का महत्व स्वीकार कर लिया गया है, तथापि सभी कामूल्य समान नहीं माना गया है। जैन-विचारकों के अनुसार चारों पुरुषार्थों में एक साध्यसाधन-भाव है, जिसमें अर्थ मात्र साधन है और मोक्ष मात्र साध्य है। काम अर्थ की अपेक्षा से साध्य और धर्म की अपेक्षा से साधन है। धर्म को अर्थ और काम का साध्य और मोक्ष का साधन माना गया है। जब साधन ही साध्य बन जाता है, तो वह दूसरे के विरोध में खड़ा हो जाता है और जीवन के विकास को अवरुद्ध करता है। जैनागम-साहित्य में मम्मन सेठ की कथा अर्थकोसाध्य मान लेने का सबसे अच्छा उदाहरण है, जिससे प्रकट है कि जब धन' साध्य बन जाता है, तो वह ऐहिक और पारलौकिक-दोनों जीवन में कष्ट ही लाता है। इसी आशय को सामने रखते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि 'धन में प्रमत्त पुरुष का धन, अर्थात् उस व्यक्ति काधन, जिसके लिए धन ही साध्य है, नतो इस लोक में और न परलोक में ही ऐसे आदमी की रक्षा कर सकता है। धन के असीम मोह से मूढ़ बना हुआ वह व्यक्ति, दीपक के बुझ जाने पर जैसे मार्ग को जानते हुए भी मार्ग नहीं देखता, वैसे ही वह भी न्यायमार्ग या धर्ममार्ग को जानते हए भी उसे नहीं देख पाता। जैसे एक ही नगर को जाने वाले भिन्नभिन्न मार्ग परस्पर भिन्न दिशाओं में स्थित होते हुए भी परस्पर विरोधी नहीं कहे जाते, उसी प्रकार परस्पर विरोधी पुरुषार्थ मोक्षाभिमुख होने पर असपत्न (अविरोधी) बन जाते हैं। यहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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