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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
सामाजिक-व्यवस्था के परिवर्तन का आधार है, तो आज के सम्पन्न राष्ट्र अर्थलोलुपता से मुक्त क्यों नहीं हैं ? आज के सम्पन्न व्यक्ति एवं राष्ट्र उतने ही अर्थलोलुप हैं, जितने आदिम युग के कबीले थे, अत: सामाजिक-विषमता का निराकरण अर्थप्रधान-दृष्टि में नहीं, वरन् हमारी आध्यात्मिक एवं धार्मिक जीवन-दृष्टि में ही सम्भव है।
3. भोगमय एवं त्यागमय-जीवनदृष्टि में अन्तर- मार्क्सवादी नैतिक-दर्शन और जैन-आचारदर्शन में एक मौलिक अन्तर यह है कि जहाँ जैन-दर्शन संयम पर जोर देता है, वहाँ साम्यवाद में संयम या वासनाओं के नियन्त्रण का कोई स्थान नहीं है। भोगमय-दृष्टि में साम्यवादी-दृष्टिकोण और पूंजीवादी-दृष्टिकोण समान हैं। दोनों ही उद्दाम वासनाओं की पूर्ति में अविराम गति से लगे हुए हैं। दोनों ही जीवन की आवश्यकताओं और लालसाओं में अन्तर स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन विलासिता की दृष्टि से आज तक कोई भी व्यक्ति एवं समाज अपने को शोषण, उत्पीड़न और क्रूरता से नहीं बचा सका है। आज की कठिनाई सम्भवत: यह है कि हम जीवन की आवश्यकताओं एवं विलासिता में अन्तर नहीं कर पा रहे हैं। साम्यवादी अथवा भौतिकवादी-दृष्टि में जीवन की आवश्यकता की परिभाषा यह है कि आवश्यकता समाज के द्वारा अनुमोदित होनी चाहिए। समाज को समानता के स्तर पर विलासी बनने का मौका मिले, तो मार्क्सवादी एवं भौतिकवादी-विचारक उसे ठुकराने के पक्ष में नहीं हैं। इसके विपरीत, जैन-दर्शन की दृष्टि में आवश्यकता का तात्पर्य इतना ही है कि जो जीवन को बनाए रखे और व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को कुण्ठित न करे। जैन-दर्शन न केवल आवश्यकता के परिसीमन पर जोर देता है, वरन् वह यहभी कहता है कि हमें जीवन की अनिवार्यताओं तथा तृष्णा (लालसा) के अन्तर को स्पष्ट रूप से जानना चाहिए। वस्तुतः, सामाजिक-विषमता का निराकरण वासनाओं की पूर्ति के प्रयत्नों से नहीं, अपितु वासनाओं के संयम से ही सम्भव है; क्योंकि तृष्णा की पूर्ति कभी भी सम्भव नहीं। सामाजिक-समत्व का विकास संयम से ही हो सकता है।
इन भिन्नताओं के होते हुए भी दोनों में बहुत-कुछ समानताएँ हैं।
1. मानव-मात्र की समानता में आस्था- जैन-दर्शन और साम्यवाद-दोनों ही मानव-मात्र की समानता में निष्ठा रखते हैं। दोनों ही यह स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को जीने का समान अधिकार है। अपनी सुख-सुविधाओं के लिए दूसरे का शोषण अनैतिक है।
2. संग्रह की प्रवृत्ति का विरोध- साम्यवाद और जैनदर्शन-दोनों ही संग्रह की वृत्ति को अनुचित मानते हैं। दोनों के अनुसार संग्रह एवं वैयक्तिक-परिग्रह सामाजिकजीवन के अभिशाप हैं। जैन-दर्शन का परिग्रहपरिमाणव्रत अहिंसक-साम्यवाद की स्थापना का प्रथम सोपान है। जैन-दर्शन न केवल परिग्रह की मर्यादा पर जोर देता है, बल्कि यह भी
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