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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त 187 का प्रथम चरण है। यह वह प्यास या अभीप्सा है, जो मनुष्य को सत्य या परमात्मा के निकट ले जाती है। तीव्रतम प्यास से पानी की खोज प्रारम्भ होती है, दुःख की वेदना में ही शाश्वत आनन्द की खोज का प्रयत्न प्रारम्भ होता है। शाश्वत आनन्द पदार्थों के भोग में नहीं किर्केगार्ड के अनुसार यदि विषाय या दुःखानुभूति क्षणिक है, तो व्यक्ति बाह्यसंसार में सापेक्ष वस्तुगत सुखों के भोग में अनुराग लेने लगता है, लेकिन बाह्य सांसारिकसुख और आन्तरिक अनन्त आनन्द-दोनों को एक साथ प्राप्त नहीं किया जा सकता। वह अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'Either-or' में कहता है कि या तो हम सांसारिक-सुखों के भोग में अनुरक्त रहें और आत्मगत निरपेक्ष आनन्द को प्राप्त न करें, या सांसारिक वस्तुगत सापेक्ष-सुखों को छोड़कर परम आनन्द की उपलब्धि करें, लेकिन जैसे-जैसे व्यक्ति को भोगमय जीवन की अपूर्णता और हीनता का बोध होने लगता है, वैसे-वैसे वह अन्तर्मुखी होता जाता है और निरपेक्ष आनन्द-सत् औरशुभ के प्रति उसकी अभिरुचि बढ़ती जाती है। इस प्रकार, सत्तावाद के अनुसार जीवन का सार बाह्य वस्तुगत सुख नहीं, वरन् शाश्वत, अनन्त, पूर्ण और निरपेक्ष आत्मिक-आनन्द है। जैन-आचारदर्शन भी सत्तावाद के समानजीवन का परमसाध्य वस्तुगत नश्वरसुखों को नहीं, वरन् शाश्वत आत्मिक-आनन्द को ही स्वीकार करता है। जैन-विचारकों ने भी भौतिक सुखों को क्षणिक और दुःखपर्ण मानकर उनके परित्याग का ही निर्देश दिया है। यद्यपि यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन-दर्शन और किर्केगार्ड-दोनों ही यह मानते हैं कि भौतिक-जीवन एवं शरीर की पूर्ण उपेक्षा सम्भव नहीं है। किर्केगार्ड के अनुसार मनुष्य को कम से कम ईश्वर-सान्निध्य और आनन्द प्राप्त करने के लिए तो शरीर को स्वस्थ रखना पड़ेगा और इसलिए थोड़ा-बहुत ईश्वर को भूलकर भी शरीर का रक्षण किया जाता है। यद्यपिशरीर-रक्षा एवं भौतिक-जीवन के जीने में कुछ समय के लिए परमात्मा के सान्निध्य से दूर हो जाते हैं, लेकिन ये वंचित क्षण व्यक्ति में तीव्र आत्मग्लानि पैदा करते हैं और व्यक्ति पुन: उस अवस्था में लौट जाना चाहता है। जैन-आचारदर्शन के गुणस्थानसिद्धान्त में इसी तथ्य को अत्यन्त सूक्ष्मता से समझाया गया है। उसमें बताया गया है कि सच्चा साधक (अप्रमत्त मुनि) सदैव ही आत्मरमण में लीन रहता है, लेकिन वह भी दैहिक-क्रियाओं के निमित्त उस आत्मरमण के अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान से नीचे प्रमत्तसंयम-गुणस्थान में उतर जाता है और दैहिक-क्रियाओं से निवृत्त हो पुन: साधना की अग्रिम भूमिका पर प्रस्थित हो जाता है। 10. मार्क्सवाद और जैन-आचारदर्शन यह कहा जाता है कि वर्तमान में साम्यवादी दर्शन नीति की मूल्यवत्ता को अस्वीकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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