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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
लगाव नहीं होगा, जितने की उससे अपेक्षा होती है। वह (नैतिकता) मुझमें अभिन्न होकर ही मेरे स्व में घुल सकती है। सात्म्य हुए बिना कोई औषध भी परिणामजनक नहीं होती, तब नैतिकता की परिणति कैसे होगी ? नैतिकता उपदेश्य नहीं है, वह स्वयंप्रसूत है । स्व- परोक्षता
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नाम ही अन-आध्यात्मिकता है। इसकी परिधि में व्यक्ति पूर्ण नैतिक नहीं बन पाता, इसीलिए महावीर ने कहा था कि जो आत्मरमण है, वह अहिंसा है, जितना बाह्य- रमण है, वह हिंसा है। इसी सत्य की इन शब्दों में पुनरावृत्ति की जा सकती है कि जितनी आत्मप्रत्यक्षता है, वह नैतिकता है और जितनी आत्म-परोक्षता है, वह अनैतिकता है। 107 जैन दर्शन का सम्यक् दृष्टित्व सत्तावादी दर्शन के आत्मगत - 1 - चिन्तन, आत्माभिमुखता, आत्म-अवस्थिति का ही पर्यायवाची है। जिस प्रकार सत्तावादीदर्शन में आत्मगत - चिन्तन से नैतिक जीवन का द्वार उद्घाटित होता है, उसी प्रकार जैन-दर्शन में सम्यकदृष्टि की उपलब्धि से ही नैतिक जीवन का प्रवेशद्वार खुलता है। आत्माभिमुख होना ही सम्यक्दर्शन की उपलब्धि का सही स्वरूप है। दोनों में वास्तविक समानता है । विशेषावश्यकभाष्य में भी कहा गया है कि धर्म और अधर्म का आधार आत्मा की अपनी परिणति ही है, दूसरों की प्रसन्नता या नाराजगी नहीं | 108 आत्माभिमुखता के लिए किर्केगार्ड के समान जैन आचार्यों ने भी स्वयं की मृत्यु के विचार का उदाहरण दिया है। जैन आचार्य भी यह मानते हैं कि स्वयं की मृत्यु का विचार समग्र जीवन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन ला देता है।
दुःखमयता का बोध
किर्केगार्ड के अनुसार जब हम अपनी दृष्टि अन्तर्मुखी करते हैं और अपनी आन्तरिकसत्ता का विचार करते हैं, तो एक ओर हम अपनी अन्त: चेतना को अक्षुण्ण आनन्द, अनन्त शक्ति, शाश्वत जीवन और पूर्णता की सजीव कल्पना से अभिभूत पाते हैं; तो दूसरी ओर हमें अपने वर्तमान जीवन की क्षुद्रता दुःखमयता और अपूर्णता का बोध होता है। इसी अन्तर्विरोध में विषाद या वेदना का जन्म होता है। यही विषाद या दुःखबोध सत्तावादी- दर्शन में नैतिकप्रगति का प्रथम चरण है।
जैन - आचारदर्शन में भी वर्तमान जीवन की दुःखमयता एवं क्षुद्रता का बोध आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक माना गया है। जैन दर्शन में प्रतिपादित अनुप्रेक्षाओं में अनित्यभावना, अशरणभावना और अशुचिभावना के प्रत्यय इसी विषाद की तीव्रतम अनुभूति पर बल देते हैं। बौद्ध दर्शन में भी इसी दुःखबोध के प्रत्यय को प्रथम आर्यसत्य माना गया है। गीता की तो रचना ही 'विषाद योग' नामक प्रथम अध्याय से प्रारम्भ होती है। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन सत्तावाद के साथ इस विषय में भी एकमत हैं कि वर्तमान अपूर्णता एवं नश्वरता से प्रत्युपन्न विषाद या दुःख की तीव्रतम अनुभूति ही नैतिक-साधना
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