________________
भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
आत्महित करते हुए लोकहित सम्भव हो, तो किया जा सकता है, लेकिन यदि लोकहित और आत्महित में विरोध हो, तो आत्महित करना ही श्रेयस्कर है। 105 इस प्रकार, व्यक्तिवाद के समर्थन में जैन- आचारदर्शन और सत्तावादी नीतिशास्त्र साथ-साथ चलते हैं। दोनों की दृष्टि में आत्मोत्थान या वैयक्तिक साध्य 'स्व' ही है, जिसकी उपलब्धि ही नैतिक जीवन
का सार है।
-
अन्तर्मुखी चिन्तन
सत्तावादी चिन्तक, विशेषरूप से किर्केगार्ड, नैतिकता को अनिवार्यतया आत्मकेन्द्रित मानते हैं। उनकी दृष्टि में सच्चे नैतिक जीवन का प्रारम्भ आत्मगत चिन्तन या अन्तर्मुखी प्रवृत्ति में होता है । अन्तर्मुखता या आत्माभिमुख होना नैतिकता का प्रवेशद्वार है । जब तक विषयगत चिन्तन है, विषयाभिमुखता है, तब तक नैतिक जीवन में प्रवेश सम्भव नहीं। चिन्तन विषयाभिमुख होने पर उसका स्वयं के जीवन पर कोई प्रभाव नहीं होता, उसमें विचारों की निष्क्रिय भाग-दौड़ होती है। सैद्धान्तिक कहना सुनना मात्र होता है। आत्मगतचिन्तन में हम सत्य में ही स्थित होते हैं। उसके अपने शब्दों में किसी बात को सोचना एक बात है और उस सोची हुई बात में रहना दूसरी बात है । किर्केगार्ड इस सम्बन्ध में मृत्यु का उदाहरण देते हैं। उनका कहना है कि जब तक हम मृत्यु का विषयगत चिन्तन करते हैं, तब तक उसका हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। समाचारपत्रों में लोगों की मृत्यु के समाचार पढ़ते हैं, लोगों को मरते हुए देखते हैं; लेकिन दूसरों की मृत्यु हमें अधिक नहीं खलती है। यदि
मृत्यु की बात को हम अपने ऊपर लागू करें कि हमारी मृत्यु हो रही है, तो यह विचार हमारी भावनाओं, धारणाओं, योजनाओं और कार्यकलापों को एकदम बदल देता है। हम अपनी मृत्यु के विचार से एकदम गम्भीर हो जाते हैं। हमारे आचरण में अन्तर आ जाता है, क्रान्ति हो जाती है। इस प्रकार, आत्मगत - चिन्तन को नैतिक- जीवन का अनिवार्य तत्त्व और नैतिक- पथ पर अग्रसर होने का प्रथम चरण मानते हैं।
Jain Education International
185
जैन- आचारदर्शन इस विषय में सत्तावाद का सहगामी है। उसके अनुसार भी सच्ची नैतिकता का उद्भव आत्माभिमुख होने पर होता है। जैन- चिन्तन का स्पष्ट निर्देश है कि जितना आत्मरमण है, उतनी नैतिकता है और जितना पररमण है, उतनी अनैतिकता है। पररमण, पुद्गलपरिणाति या विषयाभिमुखता अनैतिकता है और आत्मरमण या स्व में अवस्थिति नैतिकता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि आत्मा जब स्व-स्वभाव में स्थित होता है, तब वह स्व-समय (नैतिक) होता है और जब 'पर' पौद्गलिक - कर्मप्रदेशों में स्थित होता हुआ परस्वभावरूप राग- -द्वेष-मोह का परिणमन करता है, तब वह पर समय (अनैतिक) है। इसी जैन- दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए मुनि नथमलजी लिखते हैं कि नैतिकता जब मुझसे भिन्न वस्तु है, तो वह मुझसे परोक्ष होगी और परोक्ष के प्रति मेरा उतना
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org