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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
विचारकों में किसी सीमा तक मतभेद हैं, तथापि कुछ सामान्य प्रश्नों पर वे सभी एकमत हैं। सत्तावाद की प्रमुख विशेषता यह है कि वह बुद्धिवाद एवं विषयगत चिन्तन का विरोधी है तथा आत्मनिष्ठता और अन्तर्ज्ञान पर अधिक बल देता है। 103 आचार दर्शन-विषयक अनेक प्रश्नों में सत्तावाद जैन-दर्शन के अधिक निकट है, अतः उसका संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है।
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आचारदर्शन को प्रमुखता
जैन-दर्शन के समान सत्तावाद के प्रमुख विचारक किर्केगार्ड भी तत्त्वमीमांसा में उतनी रुचि नहीं रखते, जितनी आचारदर्शन में। उनकी दृष्टि में केवल सत्, शिव और सुन्दर से ऊँचा नहीं है। नैतिक आत्मसत्ता ही सत् है, क्योंकि वह गत्यात्मक और उदीयमान है तथा व्यक्ति को महनीयता प्रदान करती है। नैतिक-आत्मसत्ता का ज्ञान कोरा ज्ञान नहीं है, वरन् उसमें हमारे जीवन को अधिक ऊँचा और महान् बनाने की प्रेरणा भी है। जैन-दर्शन भी निरे तत्त्वज्ञान का विरोधी है । जो तत्त्वज्ञान आत्मविकास की दिशा में नहीं ले जाता, वह निरर्थक
है। उत्तराध्ययनसूत्र में ऐसे निरर्थक ज्ञान का उपहास किया गया है। 104 जो ज्ञान नैतिकजीवन से सम्बन्धित नहीं है और नैतिक जीवन को प्रेरणा नहीं देता, वह ज्ञान सत्तावाद और जैन - आचारदर्शन - दोनों के लिए ही अनावश्यक है। बुद्ध ने भी निरी तत्त्वमीमांसा की उपेक्षा ही की थी।
वैयक्तिक नीतिशास्त्र
आचारदर्शन की दृष्टि से सभी सत्तावादी विचारक व्यक्तिवादी हैं। उनकी दृष्टि में आचारदर्शन आत्मसापेक्ष है, परसापेक्ष या समाजसापेक्ष नहीं । नैतिक आचरण दूसरे लोगों के लिए नहीं, वरन् स्वयं व्यक्ति के लिए है। नैतिकता का अर्थ लोककल्याण नहीं, वरन् आत्मोत्थान है। कर्म की नैतिकता का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाना चाहिए कि उसमें कितनी तीव्र आत्मवेदना या स्व की सत्ता का बोध है, न कि इस आधार पर कि वह कितना अधिक लोकहितकारी है। सत्तावाद के जनक किर्केगार्ड के अनुसार नैतिकता आत्मकेन्द्रित है। कहा जाता है कि उन्होंने नैतिक-चिन्तन में कोपरनिकसीय क्रान्ति ला दी है। उनके पूर्ववर्ती अधिकांश आचारशास्त्री नैतिकता को परसापेक्ष मानते थे। उनकी दृष्टि में हमारा नैतिक आचरण दूसरे लोगों के लिए है, यदि हम ऐसे एकान्त स्थान में रहें, जहाँ दूसरा कोई व्यक्ति न हो, तो हमारे लिए नैतिकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, लेकिन किर्केगार्ड इस विचार से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार, नैतिकता का सम्बन्ध व्यक्ति का स्वयं की आत्मा से है, न कि अन्य लोगों या समाज से ।
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जहाँ तक जैन- आचारदर्शन की बात है, निश्चयनय की दृष्टि से वह व्यक्तिवाद का समर्थक है। उसकी मान्यता है कि आत्महित ही नैतिक जीवन का प्रमुख तत्त्व है।
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