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________________ 182 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन क्षमता से माना है। उसके अनुसार, नैतिक होने का अर्थ मानव की मूलभूत क्षमताओं की अभिव्यक्ति है। गर्नेट और लेविन के आचरण में विवेक का प्रत्यय जैन-विचारणा तथा अन्य सभी भारतीय-विचारणाओं में भी मान्य रहा है। जैन-विचारकों ने सम्यक्ज्ञान के रूप में जो साधनामार्ग बताया है, वह केवल तार्किक-ज्ञान नहीं है, वरन् एक विवेकपूर्ण दृष्टि है। जैनपरम्परा में विवेकपूर्ण आचरण के लिए यतना' शब्द का प्रयोग विभिन्न क्रियाओं को विवेक या सावधानीपूर्वक सम्पादित करता है, वह अनैतिक-आचरण नहीं करता है।99 बौद्धपरम्परा में भी यही दृष्टिकोण स्वीकृत है। बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय में महावीर के समान ही इस तथ्य का प्रतिपादन किया है। गीता में कर्मकौशल को ही योग कहा है। इस प्रकार, भारतीय आचारदर्शनों में भी आचरण में विवेक का प्रत्यय स्वीकृत रहा है।। गर्नेट ने आचरण में विवेक के लिए समग्र परिस्थितियों एव सभी पक्षों का विचार आवश्यक माना है, जिसे हम जैन-दर्शन के अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं। अनेकान्तवाद कहता है कि विचार के क्षेत्र में एकांगी-दृष्टिकोण रखकर निर्णय नहीं लेना चाहिए, वरन् एक सर्वांगीण-दृष्टिकोण रखना चाहिए। गर्नेट का कर्म के सभी पक्षों के विचार का प्रत्यय अनेकान्तवादी सर्वांगीण-दृष्टिकोण से अधिक दूर नहीं है। 3. आत्मसंयमका सिद्धान्त और जैन-दर्शन मानवतावादी नैतिक-दर्शन के तीसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व इरविंग बबिट100 करते हैं। बबिट के अनुसार मानवता एवं नैतिक-जीवन का सार न तो आत्मचेतनामय जीवन जीने में है और न विवेकपूर्ण जीवन में, वरन् वह संयमपूर्ण जीवन या अनुशासन में है। बबिट आधुनिक युग के संकट का कारण यह बताते हैं कि एक ओर हमने परम्परागत (कठोर वैराग्यवादी) धारणाओं को तोड़ दिया और उनके स्थान पर छद्मरूप में आदिमभोगवाद को ही प्रस्तुत किया है। वर्तमान युग के विचारकों ने परम्परागत धारणाओं के प्रतिवाद में एक ऐसी गलत दिशा का चयन किया है, जिसमें मानवीय-हितों को चोट पहुँची है। उनका कथन है कि मनुष्य में निहित वासनारूपी पाप को अस्वीकृत करने का अर्थ उस बुराई को ही दृष्टि से ओझल कर देना है, जिसके कारण मानवीय-सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। मनुष्य की वासनाएँ हैं, पाप हैं, अनैतिकता है, इस बात को भूलकर हम मानवीय-सभ्यता का विनाश करेंगे और उसके प्रति जाग्रत रहकर मानवीय-सभ्यता का विकास कर सकेंगे। बबिट बहुत ही ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं कि हममें जैविक-प्रवेग (Vital Impulse) तो बहुत है, आवश्यकता है जैविक-नियन्त्रणकी। हमें अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना चाहिए। केवल सहानुभूति के नाम पर सामाजिक-एकता नहीं आ सकती। मनुष्यों को सहानुभूति के सामान्य तत्त्व के आधार पर नहीं, वरन् अनुशासन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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