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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
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जो प्रसुप्त चेतनावाला है, वह अमुनि (अनैतिक) है और जो जाग्रत चेतनावाला है, वह मुनि (नैतिक) है। सूत्रकृतांग में प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहकर यही कहा गया है कि जो क्रियाएँ आत्मविस्मृति को लाती हैं, वे बन्धनकारक हैं, इसलिए अनैतिक भी हैं। इसके विपरीत, जो क्रियाएँ अप्रमत्त-चेतना की अवस्था में सम्पन्न होती हैं, वे बन्धनकारक नहीं होती और वे पूर्णतया विशुद्ध और नैतिक हैं। इस प्रकार, वारनर फिटे का आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण जैन-विचारणा के अति निकट है।
बौद्ध-दर्शन में भी आत्मचेतनताको नैतिकता का प्रमुख आधार माना गया है। बुद्ध स्पष्ट कहते हैं कि अप्रमाद अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्युका। बौद्ध-दर्शन में अष्टांगसाधनामार्ग में सम्यकस्मृति भी इस बात को स्पष्ट करती है कि आत्मस्मृति या जाग्रत चेतना नैतिकता का आधार है, जबकि आत्मविस्मृति अनैतिकता का आधार है। नन्द को उपदेश देते हुए बुद्ध कहते हैं कि जिसके पास स्मृति नहीं है, उसे आर्य सत्य कहाँ से प्राप्त होगा; इसलिए चलते हुए चल रहा हूँ, खड़े होते हुएखड़ा हो रहा हूँ एवं इसी प्रकार दूसरे कार्य करते समय अपनी स्मृति बनाए रखो। इस प्रकार, बुद्ध भी आत्मचेतनता को नैतिक-जीवन का केन्द्र स्वीकार करते हैं।
गीता में भी सम्मोह से स्मृतिविनाश और स्मृतिविनाश से बुद्धिनाश-ऐसा कहकर यही बताया गया है कि आत्मचेतनता नैतिक-जीवन के लिए आवश्यक है।” 2. विवेकवाद और जैन-दर्शन
मानवतावाद के समकालीन विचारकों में दूसरा वर्ग विवेकको प्राथमिकमानवीयगुण मानता है। सी.बी. गर्नेट और इसराइल लेविन के अनुसार नैतिकता विवेकपूर्ण जीवन जीने में है। गर्नेट के अनुसार विवेक तार्किक-संगति नहीं, वरन् जीवन में कौशल या चतुराई है। बौद्धिकता या तर्क उसका एक अंग हो सकता है, समग्रता नहीं। गर्नेट अपनी पुस्तक विज़डम ऑफ कण्डक्ट' में प्रज्ञा को ही सर्वोच्च सद्गुण मानते हैं और प्रज्ञा या विवेक से निर्देशित जीवन जीने में नैतिकता के सारतत्त्व की अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके अनुसार, नैतिकता की सम्यक् एवं सार्थक व्याख्या शुभ, उचित, कर्त्तव्य आदि नैतिक प्रत्ययों की व्याख्या में नहीं, वरन् आचरण में विवेक के सामान्य-प्रत्यय में है। आचरण में विवेक एक ऐसा तत्त्व है, जो नैतिक-परिस्थिति के अस्तित्ववान-पक्ष, अर्थात् चरित्र, प्रेरणाएँ, आदत, रागात्मकता, विभेदीकरण, मूल्यनिर्धारण और साध्य को दृष्टि में रखता है। इन सभी पक्षों को पूर्णतया दृष्टि में रखे बिना जीवन में विवेकपूर्ण आचरण की आशा नहीं की जा सकती। आचरण में विवेक एक ऐसी लोचपूर्ण दृष्टि है, जो समग्र परिस्थितियों के सभी पक्षों की सम्यक् विचारणा के साथ खोज करती हुई सुयोग्य चुनाव करती है। लेविन के आचरण में विवेक का तात्पर्य एक समयोजनात्मक
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