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________________ जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन मानवतावाद मनुष्य को ही समग्र मूल्यों का मानदण्ड स्वीकार करता है। इस प्रकार उसमें मानवीय जीवन का सर्वाधिक महत्व है। यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न देखें, तो हमें यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना होगा कि भारतीय परम्परा भी मानवीय जीवन के महत्व को स्वीकार करती है। जैन आगम उत्तराध्ययन में मानव जीवन को - 180 दुर्लभ बताया गया है। आचार्य अमितगति ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि जीवन में मनुष्य का जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है। धम्मपद में भगवान् बुद्ध ने भी मनुष्य जन्म को दुर्लभ बताया है। महाभारत में भी कहा गया है कि रहस्य की बात तो यह है कि मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है । गोस्वामी तुलसीदास भी इस तथ्य को प्रकट करते हैं- 'बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर दुरलभ सब ग्रन्थन्हि गावा।' इस प्रकार, भारतीय - चिन्तन में मनुष्य-जीवन के सर्वोच्च मूल्य को स्वीकार किया गया है। " समकालीन मानवतावादी- विचार में प्राथमिक मानवीय गुण के प्रश्न को लेकर प्रमुख रूप से तीन विचारधाराएँ प्रचलित हैं। जैन आचारदर्शन के साथ इनका तुलनात्मक अध्ययन करने की दृष्टि से इन तीनों विचारधाराओं पर अलग-अलग विचार किया जा रहा है। आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण और जैन- दर्शन 1. आत्मचेतनता या आत्मजाग्रति को ही नैतिकता का आधार और प्राथमिक मानवीयगुणाननेवाले मानवतावादी विचारकों में वारनर फिटे प्रमुख हैं। ये नैतिकता को आत्मचेतना का सहगामी मानते हैं। उनकी दृष्टि में नैतिकता का परिभाषक उस समग्र सामाजिकप्रक्रिया में नहीं है, जिसमें मनुष्य जीता है, वरन् आत्मचेतना की उस मानवीय प्रक्रिया में है, व्यक्ति के जीवन में रही हुई है। वस्तुतः, नैतिकता आत्मचेतनामय जीवन जीने में है। कथन है कि जीवन के समग्र मूल्य जीवन की चेतना में निहित हैं। यही एक ऐसा दृष्टिकोण है, जो जीवन के या अन्य किन्हीं भी मूल्यों को अवधारण कर सकता है। चेतना नियन्त्रण में जो जीवन है, वही सच्चा जीवन है। नैतिक होने का अर्थ यह जानना है कि हम क्या कर रहे हैं। जाग्रत चेतना नैतिकता है और प्रसुप्त चेतना अनैतिकता है। शुभ एवं उचित कार्य वह नहीं है, जिसमें आत्मविस्मृति होती है, वरन् वह है, जिसमें आत्मचेतनता होती है। 2 - मानवतावादी - आचारदर्शन का यह आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण जैनआचारदर्शन के अति निकट है। वारनर फिटे के नैतिक-दर्शन की यह मान्यता अति स्पष्ट रूप में जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में उपलब्ध है। ये आचारदर्शन आत्मचेतनता को अप्रमत्तता या आत्मजाग्रति कहते हैं । जैन दर्शन के अनुसार प्रमाद आत्मविस्मृति की अवस्था है और उसे अनैतिकता का प्रमुख आधार कहा गया है। जो भी क्रियाएँ प्रमाद का कारण हैं, या प्रमादपूर्वक की जाती हैं, वे सभी अनैतिक हैं। आचारांग में कहा गया है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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