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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
समायोजन इतना महत्वपूर्ण नहीं है। उसमें समायोजन का अर्थ चेतना का स्वस्वभाव के अनुरूपहोना है। इस प्रकार, विकासवाद और जैन-दर्शन-दोनों ही समायोजन को स्वीकार करते हैं, लेकिन जहाँ विकासवाद व्यक्ति और परिवेश के मध्य समायोजनको महत्व देता है, वहाँ जैन-दर्शन मनोवृत्तियों और स्वस्वभाव के मध्य समायोजन को आवश्यक मानता है। विकासवाद में समायोजन जीवनरक्षण के लिए है, जबकि जैन-दर्शन में समायोजन आत्मा (स्वस्वभाव) के रक्षण के लिए है।
विकासवाद का तीसरा प्रत्यय 'विकास की प्रक्रिया में सहभागी होना है। जो कर्म विकास को अवरुद्ध करते हैं और बाधक बनते हैं, वे अनैतिक हैं और जो कर्म विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं, वे नैतिक हैं। जैन-दर्शन में विकास का प्रत्यय तो आया है, लेकिन भौतिक-विकास का जो रूप विकासवाद में मान्य है, वह जैन-दर्शन में उपलब्ध नहीं है। जैन-दर्शन आत्मा के आध्यात्मिक-विकास पर जोर देता है और इस दृष्टि से वह अवश्य ही उन कर्मों को नैतिक मानता है, जो आत्मविकास में सहायक हैं और उन कर्मों को अनैतिकमानता है, जो आत्मिक शक्तियों के विकास में बाधक हैं। जैन-दर्शन के अनुसार विकासका सर्वोच्च रूप आत्माकीज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और सङ्कल्पात्मक-शक्तियों की पूर्णता की स्थिति है। जब आत्मा में ये शक्तियाँ पूर्णतया प्रकट हो जाती हैं और उन पर कोई आवरण या बाधकता नहीं होती, तभी नैतिक-पूर्णता प्राप्त होती है। इस प्रकार, जैनदर्शन विकास के प्रत्यय को स्वीकार करते हुए भी विकासवाद से थोड़ा भिन्न है।
स्पेन्सर का विकासवादी-दर्शन और जैन-दर्शन पुन: एक स्थान पर एकदूसरे के निकट आते हैं। स्पेन्सर के अनुसार विकास की अवस्था में नैतिकता सापेक्ष होती है और विकास की पूर्णता पर नैतिकता निरपेक्ष बन जाती है। जैन-दर्शन भी आध्यात्मिक-विकास की अवस्था में नैतिक-सापेक्षता को स्वीकार करता है। उसके अनुसार भी हम जैसे-जैसे आध्यात्मिक-विकास की प्रक्रिया में ऊपर उठते जाते हैं, वैसे-वैसे नैतिक-बाध्यताओंऔर नैतिक-सापेक्षताओं से ऊपर उठते हुए नैतिक-निरपेक्षता की ओर आगे बढ़ते हैं।।
स्पेन्सर ने जीवन की लम्बाई और चौड़ाई को नैतिक-प्रतिमान बनाने का प्रयास किया है। जैन-दर्शन जीवनरक्षण की बात करते हुए भी स्पेन्सर की जीवन की लम्बाई और चौड़ाई के नैतिक-प्रतिमान को स्वीकार नहीं करता। स्पेन्सर के अनुसार जीवन की लम्बाई का अर्थ है- दीर्घायु होना और चौड़ाई का अर्थ है- जीवन की सक्रियता या कर्मठता। जैनदर्शन स्पेन्सर की उपर्युक्त मान्यताओं को समुचित नहीं मानता, क्योंकि एक महापुरुष को अल्पायु होने के कारण अनैतिक नहीं कहा जा सकता और एक डाकू को शारीरिक-दृष्टि से कर्मठ होने पर नैतिक नहीं कहा जा सकता। जीवनवृद्धि का सच्चा अर्थ तो सद्गुणों की वृद्धि है। जैन-दार्शनिकों ने जीवनरक्षणकी अपेक्षा सद्गुणों के रक्षण को अधिक महत्वपूर्णमाना है।
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