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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
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3. विकास की प्रक्रिया में सहगामी होना।
जैन-दर्शन विकासवाद के कुछ तथ्यों को स्वीकार करता है। जीवन को परम-मूल्य मानने की धारणा जैन-दर्शन में भी स्वीकृत है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि सभी को जीवन एवं प्राण प्रिय हैं। दशवैकालिकसूत्र में भी कहा गया है कि सभी जीवित रहना चाहते हैं. कोई भी मरना नहीं चाहता। इस प्रकार, जीवनरक्षण को एक प्रमुख तथ्य माना गया है। जैन-दर्शन का अहिंसा-सिद्धान्त भी इसी जीवनरक्षण एवं जीवन के परममूल्य की धारणा पर अधिष्ठित है। सूत्रकृतांग में भी इसी विकासवादी-दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अपने जीवन के कल्याण का जो उपाय जान पड़े, उसे शीघ्र ही पण्डितपुरुषों से सीख लेना चाहिए।
स्पेन्सर आचरण के शुभत्व और अशुभत्व काआधार जीवनवर्द्धकता को मानते हुए कहता है कि अच्छा आचरण जीवनवर्द्धक और बुरा आचरण जीवन के विनाश का कारण है। जैन-दर्शन के अनुसार भी आचरण के शुभत्व और अशुभत्व का प्रमापक अहिंसा का सिद्धान्त है। आचार्य अमृतचन्द्र ने जैन-नैतिकता के सभी नियमों को इसी अहिंसा के सिद्धान्त से निर्गमित किया है। अहिंसा का सिद्धान्त भी यही है कि जो आचरण जीवन के विनाश का कारण है, वह अशुभ है और जो आचरण जीवन के रक्षण का कारण है, वहशुभ है। इस प्रकार, स्पेन्सर के दृष्टिकोण से जैन-दर्शन की साम्यता सिद्ध होती है। यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि स्पेन्सर जीवनरक्षण को शुभत्व का आधार मानते हुए भी अहिंसा के सूक्ष्म सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं करता। उसके सिद्धान्त में जीवन के सभी रूपों को वह समानता नहीं दी गई है, जो कि जैन-दर्शन के अहिंसा-सिद्धान्त में है।
नकेवल जैन-दर्शन में, वरन् बौद्ध और वैदिक-दर्शनों में भी जीवन के मूल्य को स्वीकार किया गया है और कहा गया है कि जीवन का रक्षण वरेण्य है। कौषीतकिउपनिषद् में कहा गया है कि निःश्रेयस मात्र प्राण में है। चाणक्य ने भी कहा है कि धन और स्त्री की अपेक्षाभी आत्मा (जीवन) की सदैव रक्षा करनी चाहिए। बुद्ध ने भी जीवनरक्षण को आवश्यक कहा है। धम्मपद में बुद्ध कहते हैं कि अपने को प्रिय समझा है, तो अपने को सुरक्षित रखना चाहिए।
विकामनाटी आपारदर्शन का दूसरा प्रमुख प्रत्यय समायोजन है। परिवेश के प्रति समायोजन नैतिक-जीवन का आवश्यक अङ्ग माना जाता है। स्पेन्सर के शब्दों में, सभी बुराइयों का उत्स देह का परिवेश के अनुरूप न होना है। 2 स्पेन्सर ने परिवेश के साथ अनुरूपता या समायोजन को नैतिक-जीवन का साध्य और शुभाशुभ का प्रतिमान-दोनों ही माना है। जैन-दर्शन का समत्वयोग इसी समायोजन की प्रक्रिया को अभिव्यक्त करता है, यद्यपि जैन-दर्शन में समायोजन का अर्थ आन्तरिक-समत्व से है। उसकी दृष्टि में बाह्य
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