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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
अनुचित हैं। संयम दोनों की मध्यावस्था के रूप में सद्गुण है। यद्यपि मात्रात्मक मानक की इस धारणा के सम्बन्ध में कुछ अपवाद स्वयं अरस्तू ने भी स्वीकार किए हैं।
जैन-दर्शन में अरस्तू के इस मात्रात्मक मानक दृष्टिकोण का समर्थन आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन नामक ग्रन्थ में भी मिलता है। वे लिखते हैं कि सुख का अनुभव करना बुरा नहीं है, लेकिन उसके पीछे जो वासना है, वह बुरी है। सुख भोग से कोई पाप नहीं होता, पाप होता है सुख भोग की वासना के कारण, क्योंकि यह वासना सम्यक् दृष्टिकोण की घातक है। वासना से सम्यक्त्व का नाश होता है, जबकि सम्यक्त्व सुख का हेतु है । वासना मात्रातिक्रमण की ओर ले जाती है और यही मात्रातिक्रमण पाप है। आचार्य इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए मिठाई का उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि 'अजीर्ण' मिष्ठान्न भोजन नहीं होता, वह होता है उसकी मात्रा का अतिक्रमण करने से, 2 इस प्रकार जैन-दर्शन में भी अरस्तू के समान मात्रा के मानक का विचार उपलब्ध है।
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इसी आधार पर यह निष्कर्ष उपस्थित कर सकते हैं कि प्राकृतिक-क्षुधाओं, उदात्त भावनाओं और संवेगों का दमन नहीं करना चाहिए, वरन् उन्हें इस रूप में नियोजित करना चाहिए कि वे पूर्ण नैतिक जीवन की दिशा में आगे ले जाएं।
2.
विकासवाद और जैन दर्शन
विकासवादी - आचारदर्शन नैतिकता को एक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। उनकी दृष्टि में नैतिक-प्रत्यय और उनके अर्थ सापेक्ष हैं। सापेक्ष नैतिकता विकासवादी आचारदर्शन की महत्वपूर्ण मान्यता है । विकासवाद के अनुसार नैतिकता का अर्थ है अपने अस्तित्व को बनाए रखना और विकास की प्रक्रिया में सहयोगी होना। इसके अनुसार, शुभ की व्याख्या यह है कि जो विकास की प्रक्रिया में सहायक है, वह शुभ है और जो सहायक नहीं है, वह अशुभ है। विकासवादी दर्शन में सुख को नैतिक - जीवन का परम साध्य स्वीकार किया गया है, लेकिन उसके साथ ही वैयक्तिक एवं जातीय - जीवन के अस्तित्व को भी महत्वपूर्ण माना गया है। स्पेन्सर कहते हैं कि जीवन का अन्तिम साध्य आनन्द है, लेकिन जीवन का निकटवर्ती साध्य जीवन की लम्बाई और चौड़ाई है। 3 वे कहते हैं कि क्रम विकास की गति सदैव आत्मरक्षण की दिशा में होती है और वह उस सीमा को उस समय प्राप्त होता है, जब जीवन, लम्बाई और चौड़ाई - दोनों में अधिकतम हो जाता है। 74 विकासवादी दर्शन में जो प्रक्रियाएँ जीव को वातावरण में समायोजित करती हैं और जीवन की लम्बाई और चौड़ाई में वृद्धि करती हैं, वे ही नैतिक हैं। इस प्रकार, विकासवादी दर्शन में प्रमुखरूप से तीन दृष्टिकोण परिलक्षित होते हैं
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1. जीवन का रक्षण,
2. परिवेश से समायोजन, और
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