________________
भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
167
भी नहीं होती, बिना त्याग के अभय की प्राप्ति भी नहीं होती, अत: सब कुछ त्याग करके सुखी हो जाओ।
___जैन-दर्शन की भाँति महाभारत में भी लगभग वैसे ही शब्दों में कहा गया है कि वासनाओं की पूर्ति से होने वाले कामसुख, या भौतिकसुख,या दिव्य लोगों के महान सुख भी वीततृष्ण व्यक्ति के सुखों की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं। जैन-विचार के सुख के पूर्ण या अनाबाध स्वरूप को ही छान्दोग्योपनिषद् में 'भूमा' कहा गया है। ऋषि कहता है कि जोभूमा या अनन्त है, वही सुख है,अल्प या अनित्य में सुख नहीं है। अनन्तता, पूर्णता या शाश्वतता ही सुख है, अत: उसी की जिज्ञासा करनी चाहिए।
___ इस प्रकार, हम देखते हैं कि न केवल जैन-परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिकपरम्पराओं में भी सुख को अपने विशिष्ट अर्थ में नैतिक-जीवन का साध्यमाना गया है, अत: कहा जा सकता है कि जैन-विचारणा और सामान्य रूपसे अन्य सभी भारतीय विचारणाओं में नैतिक-साध्य के रूप में सुख को स्वीकार किया गया है और उसे शुभत्व का प्रमापक भी माना गया है, फिर भी यह स्मरण रखने की बात है कि भारतीय-चिन्तन में सुख को ही एकमात्र नैतिक-जीवन का साध्य नहीं कहा गया है। सुख हमारी तात्त्विक-प्रकृति के अंग के रूप में साध्य अवश्य है, लेकिन इसके साथ ही हमारी तात्त्विक-प्रकृति के अन्य पक्ष भी हैं, जिन्हें अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। सुखवाद की, जैन-दर्शन के अनुसार प्रमुख आलोचना यह है कि वह सुख को ही एकमात्र साध्य मानता है, जबकि चेतना के अन्य पक्ष भी समान रूप से नैतिक-साध्य बनने की अपेक्षा रखते हैं। सुखवाद चेतना के मात्र अनुभूत्यात्मक-पक्ष को स्वीकार करता है और उसके बौद्धिक-पक्ष की अवहेलना करता है। यही उसका एकांगीपन है।
जैन-दार्शनिक सुखवाद को स्वीकार करते हुए भी बौद्धिक एवं ज्ञानात्मक-पक्ष की अवहेलना नहीं करते और इस रूप में वे सुखवादी-विचारणा के तत्त्वों को स्वीकार करते हुए भी आलोचना के पात्र नहीं बनते हैं।
अरस्तू का मात्रा कामानक और जैन-दर्शन- पाश्चात्य-विचारकों में अरस्तु का नाम अग्रगण्य है। अरस्तू के नैतिक-दर्शन में शुभ का प्रतिमान स्वर्णिम माध्य' (Golden Mean) माना गया है। अरस्तू के अनुसार प्रत्येक गुण अपनी मध्यावस्था मे ही नैतिक-शुभ होता है। उसने सद्गुण और दुर्गुण की कसौटी के रूप में इसी स्वर्णिम माध्य' को स्वीकार किया है। समार्ग मध्यमार्ग है। उदाहरणार्थ, साहस सद्गुण है, जो कायरता और उग्रता की मध्यावस्था है। कायरता और सदैव संघर्षरत रहना-दोनों ही अवगुण हैं। आदर्श इन दोनों के मध्य में है, जिसे 'साहस' कहा जाता है। इसी प्रकार, सांसारिक-सुखों में अनुरचित के रूप में अत्यधिक भोग-विलास और विरक्ति के रूप में तप-मार्ग या देह-दण्डन-दोनों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org