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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त (त्याग) का है । सन्तोष में इच्छा का अभाव नहीं है, लेकिन निष्क्रमण में इच्छा, ममत्व या आसक्ति का अभाव है । सन्तोष और इच्छा के अभाव की पूर्णता आसक्ति के अभाव में ही होती है । सन्तोष किया जाता है, लेकिन अनासक्ति होती है । सन्तोष प्रयासजन्य है, अनासक्ति स्वभावजन्य है। अतः एक सन्तोषी व्यक्ति की अपेक्षा भी अनासक्त वीतराग पुरुष का सुख कहीं अधिक होता है। कहा भी गया है कि न तो अपार सम्पत्तिशाली पुरुष ही सुखी है, न अधिकार सम्पन्न सेनापति ही; पृथ्वी का अधिपति राजा एवं स्वर्ग के निवासी देव भी एकान्त रूप से सुखी नहीं हैं; जगत् में यदि कोई एकान्त रूप से सुखी है, तो वह है निस्पृह, वीतराग साधु । " चक्रवर्ती और देवराज इन्द्र के सुखों की अपेक्षा भी, लोकव्यापार से निवृत्त निस्पृह श्रमण अधिक सुखी है। 60 स्वाभाविक तौर पर यह प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों कहा गया है कि निस्पृह वीतराग साधु ही सर्वाधिक सुखी है ? उसका सुख ही क्यों उच्च कोटि का सुख है ? जैनाचार्यों ने उक्त प्रश्न का उत्तर निम्न शब्दों में दिया है, निस्पृहता के अतिरिक्त शेष सब सुख दुःख के प्रतिकार के निमित्त होते हैं, मात्र सुख का अभिमान उत्पन्न करते हैं, वे वास्तविक सुख नहीं कहे जा सकते।" सुख दुःख के अस्थायी प्रतिकार हैं, वे मात्र सुखाभास हैं; वास्तविक सुख नहीं हैं। वैषयिक सुखों की तुलना खाज के खुजाने से उत्पन्न सुख से की है। जैसे खाज खुजाने से उत्पन्न सुख का आदि और अन्त - दोनों दुःखपूर्ण हैं, वैसे ही वैषयिक सुखों का आदि और अन्त - दोनों ही दुःखपूर्ण हैं, अतः वे वास्तविक सुख नहीं हो सकते । - Jain Education International जैन- विचारणा के अनुसार निष्क्रमण-अवस्था में व्यक्ति सब कुछ त्याग देता है, लेकिन त्याग उसी का किया जा सकता है, जो 'पर' है, 'स्व' का त्याग नहीं किया जा सकता, अत: सब- कुछ त्याग करने के पश्चात् जो शेष रहता है, वह है उसका परिशुद्ध 'स्व' । वही अपना है। पाश्चात्य विचारक मैकेंजी भी कहते हैं कि शुद्ध नैतिक दृष्टिकोण किसी भी व्यक्ति का किसी भी सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं है, सिवाय उसके, जिसने उसे अपने अस्तित्व का अंग बना लिया है। 12 जैन - विचारक यहाँ यह कहना चाहेंगे कि वस्तुत: किसी भी बाह्य-सत्ता को अपना अंग बनाया ही नहीं जा सकता। अपने अस्तित्व को छोड़कर शेष सब बाह्य हैं। जर्मन विचारक जी. सीमेल कहते हैं, 'शुद्ध अर्थ में अपने अस्तित्व के अतिरिक्त मेरा कुछ भी नहीं है, '63 अतः जो अपना नहीं है, उसे छोड़ देना, उससे निवृत्त होना निष्क्रमण - सुख और जो 'स्व' है, उसे पा लेना अस्तित्व सुख है। इसे हम शुद्धात्मदशा कह सकते हैं, जिसमें आत्मा विभावदशा से स्वभावदशा में आ जाती है और आत्मा के निजगुण प्रकट हो जाते हैं । यही शुद्ध आत्मदशा अस्तित्वसुख है। वस्तुतः, निष्क्रमणसुख और अस्तित्वसुख एक ही अवस्था के दो पहलू हैं- पहला निषेधात्मक पहलू 165 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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