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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
लेकिन सम्पत्ति अपने में साध्य नहीं है, वह तो मात्र साधन है, इसीलिए इसे नैतिकता का साध्य नहीं माना जा सकता। यद्यपि मम्मनसेठ के समान कुछ लोग होते हैं, जिनके लिए धन या अर्थ ही साध्य बन जाता है, लेकिन जैन- विचारणा में अर्थ या सम्पत्ति को सुख मानते हुए भी नैतिक-परममूल्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। यद्यपि सम्पत्ति को सुख मानकर उसके अपहार का निषेध अवश्य किया गया है, तथापि जैन-दर्शन यह तो स्वीकार करता है। कि सुख का चाहे निम्नस्तरीय ही रूप क्यों न हो, स्वाभाविक रूप से प्राणी के जीवन का साध्य होता है, लेकिन नैतिकता इस बात में नहीं है कि उस निम्नस्तरीय सुख के अनुसरण में उच्चस्तरीय सुख का त्याग कर दिया जाए। साम्पत्तिक- सुख का त्याग कामसुख एवं भोगसुख के लिए करना चाहिए, क्योंकि अर्थ काम और भोग का साधन है। इसी प्रकार, काम और भोग का परित्याग शुभभोग के लिए करना चाहिए । यहाँ पर जैन - दार्शनिक कामसुख और भोगसुख तथा शुभभोगसुख में अन्तर करते हैं। कामसुख और भोगसुख क्रमशः वासनात्मक और इन्द्रियसुखों के प्रतीक हैं और शुभभोग मानसिक-सुखों का प्रतीक है। 56 जैन- विचारकों के मत में इन्द्रियसुखों की अपेक्षा मानसिक सुख श्रेष्ठ है, अतः मानसिक सुख या बौद्धिक - सुख के अनुसरण के लिए इन्द्रियसुखों का परित्याग आवश्यक है। एक दूसरी दृष्टि से शुभ शब्द का अर्थ कल्याणकारी करने पर" कामसुख और भोगसुख को वैयक्तिक और शुभभोग को सामाजिक या लोक-कल्याणकारी कार्यों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । इस स्थिति में जैन- विचारणा के अनुसार वैयक्तिक सुखों का परित्याग समाज के कल्याण के लिए किया जाना चाहिए, यही सिद्ध होता है। वैयक्तिक सुखभोग का लोककल्याण के हेतु परित्याग किया जाना चाहिए यह मानकर जैन- विचारणा उपयोगितावादी दृष्टिकोण के निकट आ जाती है। लेकिन बौद्धिक सुख और लोक कल्याणकारी कार्यों के सम्पादन में रहा हुआ सुख भी सर्वोपरि नहीं रहता, जबकि आरोग्य (स्वास्थ्य) एवं जीवन का प्रश्न उपस्थित हो जाता है, यद्यपि बौद्धिक - सुख अनुसरणीय है, तथापि स्वास्थ्य और जीवन की सुरक्षा के निमित्त उनका भी परित्याग आवश्यक है।
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काम-भोग, बौद्धिक--सुख और स्वास्थ्य एवं जीवन सम्बन्धी सुखों की आकांक्षाएँ अपने में साध्य नहीं हैं। आकांक्षाएँ सन्तोष के लिए होती हैं, अतः सन्तोषजनित सुख इन सब आकांक्षाजनित सुखों से श्रेष्ठ है, " क्योंकि जिन सुखों के मूल में आकांक्षा या इच्छा होती है, वे सुख दुःखप्रत्युत्पन्न हैं। आकांक्षा या इच्छा एक मानसिक तनाव है और सभी तनाव दुःखद होते हैं, अतः दुःखप्रत्युपन्न सुख सापेक्ष रूप में सुख होते हुए भी निम्नस्तरीय सुख ही हैं, लेकिन सन्तोषवृत्ति का सुख ऐसा है, जिसके कारण इच्छा या तनाव समाप्त हो जाता है । उसका अन्त सुख-रूप ही है, अत: उसके लिए इन सभी प्रकार के सुखों का परित्याग किया जा सकता है, लेकिन सन्तोष-सुख भी अपने में साध्य नहीं है, सन्तोष से बड़ा सुख निष्क्रमण
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